- अंजलि सिन्हा
Image Courtesy- DNA newspaper
समस्या जब सिर पर आए तो उसका फौरी तकनीकी किस्म का समाधान ढूंढने में जुटे लोगों से यह अपेक्षा न करें कि वह बतायें कि अमुक समस्या क्यों है और उसका सही न्याय पूर्ण और स्थाई समाधान क्या होना चाहिए ?
बात है महिलाओं के लिए सार्वजनिक स्थानों, सड़कों, पार्कों, हाट-बाजारों आदि सभी जगह पर्याप्त संख्या में शौचालयों की उपलब्धता की। यह मुददा पुराना है लेकिन समाधान अभी भी नहीं हुआ। अब कोविड समय में जब सार्वजनिक शौचालयों में ताला लग गया तो ऐसे समय में भी जो अपनी ड्यूटी सड़क पर या किसी अन्य खुले स्थान पर, तब लगभग दो दशक पहले बने एक उपकरण ‘शीवी’ (Shewee) की बिक्री में अचानक जबर्दस्त इज़ाफा देखा गया है।
पिछले दिनों ‘द गार्डियन’ अख़बार में जेनी स्टीवेन्स द्वारा लिखी एक स्टोरी प्रकाशित हुई थी /The Shewee revolution: how 2020 has changed urination / जिसमें उन्होंने बताया कि था स्त्रियां भी खड़े होकर लघुशंका कर सकें इसके लिए इस डिवाइस की बिक्री में अभूतपूर्व तेजी देखी गयी। लेख में इस बात की चर्चा थी कि इस प्राकृतिक जरूरत को पूरा करने के लिए महिलाएं कितना परेशान रहती आयी हैं, न पर्याप्त संख्या में शौचालय हैं और जो हैं वो कोविड समय में बन्द थे। बाद में भी उनके खुलने पर सन्देह बना रहा क्योंकि ऐसे बन्द स्थानों पर संक्रमण का ख़तरा बना ही रहता है।
लेख में उन्होंने अलग अलग पेशों में सक्रिय महिलाओं के अनुभवों से बताया था कि इसे लेकर उन्हें कितनी परेशानी झेलनी पड़ती है। किन्हीं का कहना था कि बाहर जाने पर या तो हम ‘झाड़ी तलाशें’ या फिर ‘पानी कम पियें।’ उनके मुताबिक ‘शीवी’ के आगमन के बाद अब इसे लगा कर स्त्रियां पुरूषों की तरह निव्रत्त हो सकती हैं। ‘शीवी’ की बढ़ती लोकप्रियता से कई अन्य कंपनियां भी इसके उत्पादन में उतरी हैं।
सैम फाउन्टेन ने जब इस डिवाइस का निर्माण किया तब वह छात्रा थीं। इस ‘शीवी’ को खड़े होकर पेशाब करने की क्रांति कहा गया था। उन्होंने कहा कि मर्दों को खड़े होकर निवृत्त होने में कोई दिक्कत नहीं होती जबकि महिलाओं को निवृत्त होने में बैठना ही पड़ता है और उनका लाइन भी लम्बा रहता है। तब उन्हें यह खयाल आया कि क्या कुछ ऐसा नहीं हो सकता कि ऐसा उपकरण बनाया जाए कि स्त्रियां भी आसानी से उसे लगा कर निवृत्त हो सकें।
अब लॉकडाउन खुल गया है और शौचालयों से ताले भी हटने लगे हैं तबभी महिलायें लम्बी यात्रा में ‘शीवी’ साथ रखने लगी हैं। कुछ का कहना है कि इससे हम गंदे शौचालयों के इस्तेमाल से, वायरस के संक्रमण से भी बच जाते हैं। स्टैण्ड टू पी डिवाइस कहे जाने वाले इस उपकरण के निर्माण में उतरी अन्य कंपनियों ने भी जोरशोर से प्रचार चलाया है कि कोरोना वायरस से संक्रमण के मामले में यह सुरक्षित है।
‘शीवी’ जैसा उपकरण स्त्रियों के लिए कितना उपयोगी है, संक्रमण से कैसे बचाता है, इन बातों तक ही बहस सीमित रह जाए तो मूल बात की गंभीरता समझ नहीं आ सकती।
जैसे शौचालय जैसी जरूरत निहायत प्राकृतिक जरूरत है जो कि इच्छा या चुनाव का मसला नहीं है तो फिर इसके लिए लोगों को - चाहे स्त्री हो या पुरूष हो - मुसीबत का सामना क्यों करना पड़े ?
इस प्राकृतिक जरूरत में जेण्डर भेदभाव का मुद्दा तो और भी निन्दनीय है जिसे आपराधिक लापरवाही मान कर जवाबदेही सुनिश्चित किया जाना चाहिए था, लेकिन पश्चिमी जगत भी जो अपने को विकसित और आधुनिक मानता है उसने भी इस समस्या को संबोधित नहीं किया है। वहां भी अधिकतर सार्वजनिक स्थानों में शौचालय या तो है ही नहीं या कम है और इनके इस्तेमाल में लोगों को अपनी जेबें ढीली करनी पड़ती हैं।
हमारे जैसे देश में कई बार इसे मुद्दा बनाने का प्रयास महिलाओं ने किया है लेकिन नेताओं और नीतिनिर्धारकों के लिए यह गैर जरूरी है। डेढ दशक पहले गोवा के एक सरकारी कार्यालय में दीपा मुरकंुडे नामक महिला द्वारा अनोखा सत्याग्रह किया गया था जिन्होंने आँफिस में स्त्रियों के लिए अलग शौचालय की अनुपलब्धता को मुद्दा बनाने के लिए दफ्तर के बाहर सार्वजनिक स्थान पर बाक़ायदा बैठकर प्रतीकात्मक तौर पर निवृत्त होने का काम किया था। इस अनोखे सत्याग्रह की ख़बर इतनी तेजी से फैली कि न केवल सरकार शौचालय की कमी को संबोधित करने के लिए मजबूर हो गयी और कुछ समय पश्चात नागरिकों ने इस अनोखी ‘टायलेट टीचर’ को सम्मानित किया।
आज भी हमारे यहां घर से बाहर निकलने वाली महिलाओं के लिए यह सबसे बड़ी समस्याओं में शामिल है कि सड़क पर, बाजार हाट में, दफतरों में या अन्य कोई सार्वजनिक जगहें हों, वहां शौचालय के निर्माण तथा उनकी साफ सफाई पर ध्यान हीं नहीं दिया जाता है। आखिर इस सवाल का जवाब कौन देगा कि बिना जुर्म के ऐसी सख्त सज़ा का प्रावधान रखने की वजह क्या है ? बड़े छोटे शहरों से लेकर कस्बों मुहल्लों की यह समस्या गंभीर है। गांवों में तो फिर खेत या झाड़ी या कोई ओट मिल जाता है, जहां महिलाएं निवृत्त हो सकती हैं, लेकिन शहरों, बस अड्डों आदि की घूरती निगाहें भी तो पीछा करती हैं।
एक बार महाराष्ट्र में बस यात्रा करते समय एक बस अडडे पर जब बस रूकी तो सभी महिलायें शौचालय की तरफ भागीं, लेकिन शौचालय के नाम पर वह खंडहर था जिसमें गंदगी और दुर्गंध से जाना संभव नहीं था। मैं अपनी बेटी जो उस समय 13-14 साल की थी उसे लेकर थोड़ी दूर झाड़ी के पास गयी, वहां जैसे ही बैठी कि 10-15 लड़कों का एक झुंड आसपास घूरने के लिए खड़ा हो गया। उस समय झगड़ा या चिल्लाने का समय नहीं था, बस छूट जाती तो फिर किसी तरह अपनी लड़की को लेकर खुद बिना निवृत्त हुए बस में सवार होना पड़ा। ऐसे ढेरों अनुभव यदि हमारे पास हैं तो दूसरी महिलाओं के पास भी होंगे। पर ‘‘सभ्य’’ समाज में ऐसे ‘‘असभ्य’’ मसलों पर कहां कहां बातें करोगे और क्या फायदा है ?
बडे़ शहरों, मेट्रो स्टेशनों, मॉल्स तथा कुछ अन्य जगहों पर अब थोड़ी राहत तो है लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। दूसरी बात सिर्फ बड़े शहरों का ही यह सुविधा क्यों मिले ? कस्बों आदि में यह मुसीबत बड़ी है। दूसरी बात कि शौचालयों के नहीं होने की समस्या इतने व्यापक पैमाने की है कि यह किसी निजी प्रयास, कंपनी या सुलभ जैसी संस्थाओं के सहारे से दूर नहीं की जा सकती। इस सरकार के स्तर पर ही हल करना होगा, जो यह सुनिश्चित कर सकें कि एक व्यापक योजना बनें और कुछ निश्चित दूरी पर वहां साफ सफाई वाला शौचालय उपलब्ध हो।
ब्रिटेन तथा यूरोप के कुछ हिस्सों में स्त्रियों की प्राकृतिक जरूरत पूरी करने के लिए टेक्निकल समाधान पेश किए जा रहे हैं, ताकि न शौचालयों की कमी पर बात हो और न ही इस पर विचार हो कि स्त्रियों को चूंकि निवृत्त होने में पुरूषों की तुलना में अधिक समय लगता है तो क्यों ने अमेरिका तथा कनाडा की तरह वहां भी ‘रेस्टरूम इक्विटी बिल’ जैसा कोई बिल पेश हो। मालूम हो कि इस बात को मद्देनज़र रखते हुए संयुक्त राज्य अमेरिका तथा कनाडा की कई राज्यों / नगरपालिकाओं ने पुरूषों के लिए एक टायलेट की तुलना में स्त्रियों के लिए दो टॉयलेट की योजना लागू की है। इस संदर्भ में न्यूयॉर्क की अदालत में किसी ने मुकदमा दर्ज किया था कि सार्वजनिक स्थानों पर टायलेट की अनुपस्थिति या कमी एक तरह से यौन प्रताड़ना का ही प्रकार है।
भारत में शौचालयों की कमी और जो हैं उनके बन्द रखने के पीछे हास्यास्पद कारण बताये जाते हैं। पत्रकारों के हवाले से ख़बर आयी थी कि ताला जड़ने के पीछे नगर निगम कारण बताता है कि महिला शौचालयों में असामाजिक तत्व घुस जाते हैं, महिलाओं के साथ छेड़छाड़ करते हैं या फिर गंदगी वजह बतायी जाती है।
आम तौर पर ऐसे शौचालयों में डस्टबीन नहीं होने के कारण सैनेटरी नैपकिन वहीं बाहर पड़े होते हैं। लोग यदि गंदगी करते हैं तो सफाई का कुछ उपाय करना चाहिए, लोगों को भी सीखाने जागरूक करने का काम लेना होगा, न कि शौचालयों को बन्द कर देना समाधान है। सरकार इस क्षेत्र में ठीक से बजट भी नहीं देती है ताकि आधुनिक तकनीक से लैस शौचालय बनाए जाएं। आखिर जब हवाई अडडों पर शौचालय साफ मिल सकता है तो रेलवे स्टेशनों या बस अड्डों पर क्यों नहीं हो सकता है।
मुख्य मुददा सभ्य और संवेदनशील होने का है। बजट, सफाई के उपाय, लोगों में इस्तेमाल करने को लेकर जागरूकता यह सभी बातें आराम से हो सकती हैं
0 comments:
Post a Comment