- अपर्णा
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कोविड-19 के प्रभाव ने हमारे सामने दुनिया को देखने का अलग नज़रिया दे दिया है । कहा यह भी जा सकता है कि उसने चीजों , स्थितियों और मनुष्यों के प्रति हमारे नज़रिये को बदलने को हमें मजबूर कर दिया है । समय न होने के पूंजीवादी मंत्र को उसने तहस-नहस कर दिया । मार्च से अब तक के लगभग पाँच महीनों में समय न होने का मिथक टूट गया है । संसद , न्यायपालिका सबकुछ ठप और कॉर्पोरेट भी चारों खाने चित्त । उसने सबसे पहले अपनी जवाबदेहियों से पल्ला झाड़ा और फिर सामाजिक जिम्मेदारियों से भी । अपने लिए सुविधाजनक वर्क फ्राम होम की गुंजाइश निकाली । कोविड ने दुनिया को घरों में समेट दिया। इसके अनेक भयावह पक्ष हैं जो समाज के अनेक संस्तरों पर अलग-अलग तरीके से प्रभाव डालते हैं । इसका सबसे नकारात्मक प्रभाव स्त्रियॉं पर पड़ा है । वे समाज के हरेक संस्तर पर शोषण , दमन और हिंसा का शिकार हुईं । कहीं उनके लिए रोजगार की समस्या खड़ी हुई तो कहीं पारिवारिक अत्याचार की । मध्यवर्ग की स्त्रियाँ भी इससे अछूती नहीं रहीं । इसी विषय को लेकर प्रख्यात अभिनेत्री नन्दिता दास ने सात मिनट की एक लघु फिल्म–लिसन हर (उसको सुनो) बनाई । फिल्म की कहानी कुल इतनी है कि नन्दिता दास कोरोना काल में वर्क फ्राम होम कर रही है । बीच में बच्चे को खेल और पढ़ाई संबंधी निर्देश देती रहती है । बच्चा माँ के साथ ही अधिक दिखता है । दूसरे कमरे में मौजूद पिता से उसका कोई खास सरोकार नहीं दिखता । कुरियरवाला आता है तब भी दरवाजा पत्नी खोलती है । पति अंदर से आदेश देता है । फिल्म का हुक पॉइंट यह है कि नन्दिता दास के फोन पर बार बार एक अन्य महिला का फोन आता है और उधर से पुरुष के डांटने-फटकारने-मारने की आवाज आती है और स्त्री बचने की कोशिश करते हुये चीखती है । वह फोन पर नन्दिता दास से सहायता की गुहार लगाती है । नन्दिता दास के सामने दोहरा संकट है । उस पर वर्क लोड है लेकिन वह संवेदनशील स्त्री है । झुंझलाहट के बावजूद फोन को इगनोर करना उसके लिए असंभव है । लिहाजा वह न केवल फोन सुनती है बल्कि पुलिस को फोन करती है जहां से उदासीन जवाब मिलता है और अधिक ज़ोर देने पर यह कहा जाता है कि पुलिस को अपनी ड्यूटी खूब पता है कि उसे क्या करना चाहिए । अंततः वह महिला को कॉलबॅक करती है । फोन महिला का पति उठाता है गुस्से में कहता है रांग नंबर । फिल्म खत्म हो जाती है ।
वैसे यह कोई खास फिल्म नहीं है । फिर भी अपने विषय के कारण यह महत्वपूर्ण बन जाती है । बस एक मॉडल पर सिंगल लोकेशन पर फिल्माया गया दृश्य भर है जिसमें नन्दिता दास का थका हुआ चेहरा , झुंझलाहट , पति द्वारा अंदर से दरवाजा खोलने का आदेश और पत्नी का रूआँसा चेहरा घरेलू हिंसा की एक अलग ही इबारत लिखता प्रतीत होता है । असल में इसी कारण यह लघु फिल्म खास मायने बना लेती है । एक मध्य वर्गीय स्त्री इग्नोरेंस और उत्पीड़न की जीती-जागती मिसाल बन गई है । लिसन हर फिल्म में समानांतर दो स्त्रियों की स्थिति दिखाई गई है, हैं दोनों कामकाजी लेकिन अलग-अलग वर्ग को बिलोंग करती हैं लेकिन दोनों ही प्रताड़ना का शिकार हैं । घरेलू हिंसा का मतलब मारपीट, गाली देना ही नहीं बल्कि आपको हर स्थिति में बिना कुछ कहे भी अपमानित कर आपके स्त्री होने का भान करा देना भी घरेलू हिंसा में आता है । नंदिता दास जहाँ ऑनलाइन मीटिंग के दौरान कामकाजी पति के होने के बाद भी पूरी जिम्मेदारी का निर्वहन स्वयं करती है क्योंकि वह पहले एक स्त्री ओर पत्नी है। फिल्म में नंदिता दास चिड़चिड़ाते या विरोध करते या नाराज होते हुये भी सहजता से वे सारे काम करती है क्योंकि ये उसे एक स्त्री के रूप में यही सिखाया गया है। दूसरी ओर फोन पर रोती स्त्री इस उम्मीद में उससे अपनी तकलीफ साझा करती है कि शायद कोई मदद मिल जाए और पति की मार से छुटकारा मिल जाए । पति उसे क्यों मारता है क्योंकि वह उसके कहे अनुसार काम नही करती है। उसकी बात नहीं मानती है । यानी एक बात और कि आपका अपना कोई सोच-विचार या निर्णय है ही नहीं । यहाँ तक कि नौकरी में जाने वाली स्त्रियों को घर के पुरुष यह बताते हैं कि बॉस से कैसे बात करना ओर क्या नहीं । यहाँ तक कि राजनीति में ग्राम पंचायतों में सरपंच के चुनाव में यदि महिला प्रत्याशी है तो उसके नाम के बाद लिखा जाता सरपंच पति अमुक-अमुक । यह एक उदाहरण है अर्थात कौन से निर्णय लेना है कौन से नहीं इन बातों को पुरुष तय करता है । मतलब स्त्री की सोच को पूरी तरह बधिया कर दिया जाता है । प्रख्यात नारीवादी चिंतक सीमोन द बोउवा जहां इसके अनेक जैविक आधारों की विवेचना की हैं वहीं जर्मेन ग्रीयर ने बधिया स्त्री को साहित्य की विधाओं , लोकगाथाओं और मिथकों में खोजा है ।महज सात मिनट की बहुत ही छोटी फिल्म में लॉकडाउन के बहाने
वर्क फ्रॉम होम में कामकाजी स्त्रियों की जो दशा चित्रित की गई है वह केवल लॉकडाउन
के समय की ही नही है कि स्त्रियों के काम को कोई तरजीह नहीं दी जाती बल्कि सामान्य
दिनों में भी स्थिति कमोबेश ऐसी ही होती है । हर काम के लिए पुरुष स्त्री की ओर
ताकता है कि वह उसे करे और स्त्रियां बिना शिकायत के करती हैं क्योंकि मना करने और
रिएक्ट करने पर मनमुटाव या लड़ाई-झगड़ा-बहस की स्थिति पैदा हो सकती है । इससे घर पर
अशांति होगी और इसी से बचने के कारण मन होने न होने, थके होने या शारीरिक कष्ट होने
के बावजूद चुपचाप कर देती है । यही नंदिता दास ने फिल्म में किया । स्त्रियों के
किसी भी काम को चाहे वह घर का हो या ऑफिस का , दोयम
दर्जे में गिना जाता रहा है । जबकि कामकाजी स्त्रियां इस बात को लेकर ज्यादा सतर्क
रहती हैं कि कहीं उन्हें यह न सुनने को मिल जाए कि नौकरी कर रही हो तो घर-परिवार को
कम महत्त्व दे रही हो। फिल्म में नंदिता दास की ऑनलाइन मीटिंग में कई बार रूकावटें
आती है और वह बार-बार पति,बच्चे, डोरबेल और फोन का जवाब देती है ,जबकि
उसके खुद केफोन को छोड़कर बाकि काम उसके पति भी कर सकते थे । यह एक तरह से टार्चर
करने का तरीका है । केवल मारपीट या गाली-गलौज ही हिंसा की श्रेणी में नहीं आता
बल्कि किसी की इच्छाओं को रौंदकर अपनी बात मनवाना भी हिंसा है । भला इससे कौन बचा
होगा। जैसा फिल्म में दिखाया गया है वह भी मानसिक प्रताडना है । यह सब इतना सहज
तरीके से होता है कि कहने और करने वाले दोनों को कुछ भी गलत नहीं लगता जबकि नंदिता
दास के फोन पर घरेलू हिंसा की शिकार होती एक महिला की आवाज़ आती है और वह बेचैन होकर
पुलिस को फोन कर मदद मांगती है। कहने का मतलब यह है कि सोसाइटी के हिसाब से मानसिक
प्रताड़ना का तरीका अलग अलग हो सकता है। मारपीट दिखाई देता है इसीलिए उसे प्रत्यक्ष
हिंसा कह सकते हैं लेकिन नंदिता दास के साथ प्रताड़ना नहीं हो रही है ऐसा नहीं कहा
जा सकता है। उसके पति ने एक बार भी उससे अपशब्द नहीं कहा तब ये नहीं माना जा सकता
कि वह प्रताड़ित नहीं हुई । लेकिन अपनी ऑनलाइन मीटिंग के समय घरेलू जिम्मेदारी पहले
पूरी करते हुए मीटिंग के लिए समय दे रही थी ।
यह कितनी विचित्र स्थिति है कि बॉस होते हुए भी अपने काम को सौ प्रतिशत
नहीं दे पाती क्योंकि किसी को परवाह ही नही है कि उसका काम बहुत जरूरी या
महत्त्वपूर्ण है । ऐसा हमारे घरों में या हमारे आसपास रोज होता है और हम बेफिक्र रहते हैं कि हमारे साथ
मारपीट नहीं हो रही है तो हम प्रताडनामुक्त हैं । सच यह है कि सबसे ज्यादा स्त्रियाँ
मौखिक प्रताड़ना का शिकार होती हैं । इसके लिए हमें सतर्क रहना होगा और समझना होगा
और होने पर विरोध दर्ज करना होगा अन्यथा ये कब करने और सहने की आदत में बदल जाएगा
पता ही नहीं चलेगा । इसके लिए बच्चों को चाहे लड़के हो या लड़कियां उन्हें सिखाना और
समझाना होगा ताकि आने वाले समय में इस पर नियंत्रण पाया जा सके ।
मुझे लगता है लॉकडाउन के इन 5-6 माह में घर से ऑनलाइन काम
करने वाली हर स्त्री ऐसे संकट से गुजर रही होगी और अभी भी गुजर रही है । कई स्कूल
टीचर ने बातचीत में कई बार यह जरूर कहा कि कब स्कूल खुले तो वहाँ जाकर काम किया
जाए । घर पर रहते हुए ऑनलाइन होना बहुत ही कठिन हो जाता है क्योंकि अभी सब लोग घर
पर हैं तो सबके हिसाब से काम करो । स्कूल जाने पर कम से कम पूरे तरीके से वहीं दिमाग
रहता है तो काम का आउटपुट बेहतर होता है । यहाँ ऑनलाइन में बॉस और घर वालों दोनों
का दबाव झेलना होता है जो बहुत मानसिक थकान देता है ।
हम लोगों में से अधिकतर स्त्रियां वैसा ही जीवन जीती हैं
जैसा कि फिल्म में दिखाया गया है । लेकिन
कभी असहज महसूस नहीं करती हैं क्योंकि उनमें ऐसी आदत डाल दी जाती है । उनकी
इस प्रकार कंडीशनिंग कर दी जाती है इसीलिए उन्हें ये सब बुरा नहीं लगता । इसके उलट
कभी पुरुष द्वारा कोई काम कर दिए जाने पर हम बहुत खुश होते हैं और एप्रिशियट करते
हैं। लेकिन क्या कभी हमने सोचा कि सुबह से लेकर रात तक खटने पर भी कोई सराहना नही
मिलती बल्कि यही सुनने को मिलता है ‘क्या करती हैं स्त्रियां सारे दिन घर पर रहकर ? सिर्फ पकाना
और खाना’ क्योंकि जो घरेलू काम हम करते हैं उससे कोई अर्थोपार्जन नहीं होता है
इसीलिए इसका महत्व नहीं होता । काम का दायरा तय कर दिया गया है और उसी दायरे में रहते
हुए जिंदगी खत्म हो जाती है लेकिन आज के समय में स्त्रियां जब घर से बाहर निकल कर
काम पर जा रही हैं, दो-दो जगह की जिम्मेदारियां उठा रही हैं । सफल भी हो रही हैं
फिर भी उनको बहुत महत्व नहीं मिल रहा है । इस वजह से लिसन हर फिल्म पर विश्लेषण
जरूरी है ।
स्त्रियों की बात करें तो पूरी दुनिया में स्त्रियों की
स्थिति लगभग एक सी है । सिमोन द बउवार ने
कहा है स्त्रियां पैदा नहीं होतीं बल्कि बनाई जातीं। कहने का मतलब है स्त्री होने
के लिए योनि का होना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उनके दिमाग और सोच में ऐसी समाझ
डाली जाती है कि वे अपने चारों ओर तय की गई बातों को अमल में ले आयें । इस प्रकार वे
स्त्रियोचित गुणों से लबालब हो जाएँ जैसे - शर्म, लिहाज, झुकना, आज्ञाकारी होना,
निर्णय लेने में पिता या भाई की मदद लेना , स्वयं
को अक्षम साबित करना, पिता-भाई के अनुसार पहनावा करना, दोस्ती पर घर से सहमति लेना
एक तय उम्र में घरेलू कामों में दक्ष हो जाना और परिवार में बच्चे और घरेलू कामों
को प्राथमिकता देना और यही सब हम अपने
घरों में माँ-दादी-चाची-दीदी को करते देखते हैं तब हमें ये कहीं असामान्य नहीं
लगता ओर हम भी उसमें शामिल हो जाते हैं । कभी हमको अपने अधिकारों के लिए
बोलना-लड़ना या छीनना सिखाया ही नहीं जाता है और यही कारण है कि सिमोन की कही बात
साबित हो जाती है कि स्त्रियां पैदा नहीं होती बल्कि बनाई जाती हैं । सिमोन
फ्रांस की स्त्रियों और खासकर अपने परिवार और समाज की स्त्रियों के बारे में लिखती
हैं जिसमें स्त्रियों की दयनीयता का उल्लेख है और इसके बाद उन्होंने परिवार से
विद्रोह कियान । इसी विद्रोह ने उन्हें स्त्री विमर्श की महान लेखिका बनाया ।
सिमोन का उल्लेख करना इसलिएजरूरी लगा क्योंकि किसी भी स्त्री को बड़ा काम करने के
लिए स्थितियां बनी-बनाई नहीं मिलतीं बल्कि उसे खुद बनानी पड़ती है जैसा सिमोन ने
किया।
कुल मिलाकर यह फिल्म जैसे हमारे समय के अंधेरे चेहरे पर
आईने की रोशनी भर दिखाती है लेकिन उस क्षणिक रौशनी में एक त्रासद , कंडीशंड
और तकलीफ़ों से भरी दुनिया हठात हमारे सामने दिख जाती है । जिसके कई आयाम और
समानान्तर कथाएँ हैं । एक सतत और घुटनभरे यथार्थ को समेटती हुई यह लघु फिल्म
इसीलिए देर तक न सिर्फ जेहन में बची रहती है बल्कि अनेक स्तरों पर हमारे भीतर के
घावों को हरा भी कर देती है !
ये लेख २२ अगस्त, २०२० को जनपथ (हिंदी पत्रिका ) मे प्रकाशित हुआ था ।
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