- उपासना बेहार
कोरोना वाइरस के कारण देश में सम्पूर्ण लाक डाउन किया गया जिससे सबको घर के अंदर रहने को बाध्य कर दिया गया जिसके चलते लोग घर से ऑफिस का काम (work from home) करने लगे. पहले भारत में कम संख्या में वर्क फ्राम होम होता था लेकिन लाक डाउन के कारण इसका चलन बहुत बढा है. अब लाक डाउन खुलने के बाद भी बड़ी संख्या में लोग अपने घर से ही काम करने लगे हैं. महिलायें भी इससे अछूती नहीं रही हैं. उन्हें भी वर्क फ्राम होम करना पड़ रहा है. लेकिन इस दौरान महिलाओं के साथ प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष वर्चुअल यौन उत्पीडन के मामले सामने आ रहे हैं.
पुरुष सहकर्मी के द्वारा नेट पर काम के
दौरान महिला सहकर्मियों के साथ अभद्र व्यवहार करना, अश्लील कमेन्ट करना, महिला की फोटो का स्क्रीन शाट ले लेना, पुरुष
द्वारा मीटिंग के दौरान अश्लील हाव-भाव करना, मीटिंग में सही कपडे न पहनना, ऑफिस
के समय के बाद/देर रात में भी मीटिंग करना आदि अनेक घटनाएं इन दिनों देखने को मिल
रही हैं. कोरोना के समय में लोगों की नौकरियां लगातार खत्म हो रही हैं ऐसे समय में महिलाएं
सोचती हैं कि अगर वो इसका विरोध करेगी तो कही उनकी नौकरी न चली जाए. इसलिए वो इस
तरह के व्यवहार/घटनाओं को अनदेखा कर देती हैं. साथ ही महिलाओं को ये भी समझ नहीं आता
है कि इसे कैसे डील करें, इसे लेकर कहाँ शिकायत की जाए.
अगर वर्क फ्राम होम करने वाली महिलाओं के
साथ इस तरह की कोई घटना होती है तो देश में पहले से ही मौजूद कानून ‘‘कार्यस्थल पर महिलाओं
के साथ यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम,2013’’ के अधीन ही शिकायत की जा सकती है. महिलाएं ये सोचेंगी कि वो तो ऑफिस से नहीं
घर से काम कर रही हैं तो ये कानून इस स्थिति में कैसे लागू होगा तो हमें ये इस
कानून के तरह कार्यस्थल की परिभाषा को विस्तार दिया गया है जिसके तहत अगर महिलायें
काम के लिए किसी स्थान गयी है या किसी स्थान से काम कर रही हैं तो वो जगह भी कार्यस्थल
के अंतर्गत ही आएगा.
देश में कार्यस्थल पर लैगिंक
उत्पीड़न को रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने 13 अगस्त 1997 में दिशा-निर्देश
दिये थे जिसे विशाखा गाइडलाइन कहा जाता है. इसमें महिलाओं के साथ किसी भी
प्रकार से शारीरिक सम्पर्क करना या उसका प्रयास करना, भद्दी/अश्लील
टिप्पणी या चुटकुले सुनाना, यौन संबंध बनाने की मांग करना/दबाव
डालना, अश्लील फोटो/पत्र-पत्रिका, फिल्म/सी.डी.
दिखाना, ई मेल के जरिए किसी महिला को यौन संबंधों के लिए उकसाना, यौन
इच्छा के मंशा से किसी महिला को परेशान करना, देर तक रोकना, इत्यादी
को लैंगिक उत्पीड़न के दायरे में रखा था. यह गाइडलाइन सरकारी, सार्वजनिक संस्थाओं, निजी संगठनों के कर्मचारियों के लिए लागू करना अनिवार्य था.लेकिन इसमें भी कई
कमियां थी जैसे कार्यस्थल के रुप में उसी जगह को माना गया था जहां पीड़िता और जिसके
खिलाफ शिकायत की है वह व्यक्ति कार्यरत् हैं. असंगठित क्षेत्र को कार्यस्थल और घरेलू
कामगार महिलाओं को शामिल नही किया गया था. अगर कार्यस्थल में 50 से अधिक कर्मचारी
होगें तो ही आंतरिक शिकायत कमेटी बनाना आवश्यक था लेकिन छोटे उद्योग/दुकानें/कम्पनिया इत्यादि में इतनी बड़ी संख्या में
कर्मचारी नही मिलते हैं. इसमें शिकायत के निपटारन की समय सीमा नही होने के कारण
केस सालों चलते रहते थे. इसकी सबसे बड़ी कमी यह थी कि ये एक दिशा निर्देश था न की
कानून. इसे मानना बाध्य नहीं था. इन्ही कमियों को दूर करने और इसे कानून का रूप
देने के लिए देश भर की महिला संगठनों ने लगातार कई सालों तक संघर्ष किया और उसी का
परिणाम था 2013 में आया नया कानून ‘‘कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013’’.
इस नये कानून के अंतर्गत महिलाओं
के समानता के मूलभूत अधिकारों को मानते हुए पूरी गरिमा और हक के साथ समाज में रहने, किसी कार्य, व्यापार या आजीविका कमाने की
स्वतन्त्रता के साथ साथ कार्यस्थल का वातावरण पूरी तरह सुरक्षित और यौन शोषण रहित
होना शामिल है. इस कानून में कर्मचारी की परिभाषा को विस्तारित किया गया और कोई भी
व्यक्ति चाहे वो नियमित, अस्थायी, दैनिक मजदूरी, आकस्मिक, स्वैच्छिक आधार पर कार्यरत्, प्रशिक्षु, संविदा, प्रोबेशनर हो, को कर्मचारी माना गया. नए परिस्थितयों
के अनुरूप कार्यस्थल के दायरे को बढ़ाते हुए किसी भी विभाग, संगठन, संस्थान, कार्यालय, शाखा, प्रबंधन (व्यक्ति, बोर्ड,कमेटी), बैंक, वित्तिय संस्थान, प्रायवेट संस्थान, होटल, रिर्सोट, मनोरंजन स्थल, प्लेसमेन्ट ऐजेंसी, ईट भट्टा, निर्माण क्षेत्र, फैक्टरी, खदान, फार्म, कृषि क्षेत्र, अस्पताल, नर्सिग होम, अदालत, पुलिस स्टेषन, स्पोर्टस्, की संस्था, स्टेडियम, स्पोर्ट्स काम्पलेक्स, खेलकूद, प्रतियोगिता स्थल, आवास, प्रषिक्षण स्थल चाहे वह उपयोग में ना आ रहा हो,
कर्मचारी द्वारा नौकरी के दौरान किसी स्थान पर जा रहा है, किसी स्थान (जैसे वर्क फ्राम होम) से काम कर रहा है,
को शामिल किया गया है. साथ ही जिस भी छोटे उद्योग/दुकानें/कम्पनिया में 10 कर्मचारी है वहां आंतरिक परिवाद समिति अनिवार्य बनेगी
और शिकायतों के निपटारन की समयसीमा 90 और दिये गये निर्णय को सबंधित कम्पनी या
जिला अधिकारी द्वारा लागू करने की समयसीमा 60 दिन किया गया है.
लेकिन इस कानून में भी कई
कमियां हैं जैसे यह कानून लैगिंक उत्पीड़न को अपराध की श्रेणी में नहीं रखता
है. इसलिए दोषी पर कोई आपराधिक दंड नही लग सकता है. शिकायत निवारण कमेटियां केवल अनुशंसा
ही कर सकती हैं. आतंरिक शिकायत समिति के 4 सदस्य में से 3 सदस्य उसी कार्यालय या
प्रशासनिक इकाई से होते हैं जिससे केस के प्रभावित होने और एक तरफा (बायस) होने की
संभावना बढ़ती है. इस कानून में पीड़िता के लिए कोई सर्पोट सिस्टम नही है. अगर
असंगठित क्षेत्र की गरीब, वंचित तबकों की महिलाऐं समिति में शिकायत करती हैं और इसके
बाद उन्हें काम से निकाल दिया जाये तो इस स्थिति में इस कानून में कुछ नही कहा गया
है. इस कानून की जानकारी संस्थानों, विभागों में
कार्यरत् ज्यादातर कर्मचारियों, असंगठित
क्षेत्र में कार्यरत् महिलाओं को नही है. सभी सरकारी और गैरसरकारी कार्यालयों में
आंतरिक कमेटी बनाना अनिवार्य है परन्तु अभी तक अनेक कार्यस्थलों में आंतरिक शिकायत
कमेटी का गठन नही हुआ है.
लैगिंक उत्पीड़न कोई नयी और कभी
कभार होने वाली घटना नही है, हाँ इसका स्वरूप जरुर समय और परिस्थिति के अनुरूप
बदलता जा रहा है. यह पितृसत्तात्मक हिंसा का ही एक रुप है. समाज में महिलाओं के
प्रति जो सोच है वही कार्यस्थल में परिलक्षित होती है. कार्यस्थल में होने वाली
लैगिंक उत्पीड़न मानव अधिकार के उल्लंधन के साथ साथ महिलाओं के जीवन के स्वतंत्रता
के अधिकार तथा काम के अधिकार का भी उल्लंधन है. लैगिंक उत्पीड़न का महिलाओं पर
शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक रुप से प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं. उनके
आत्मसम्मान को चोट पहुँचती है. वे अपना आत्मविश्वास खो देती हैं, अपने आप को शक्तिहीन समझने लगती हैं. बदनामी और समाज
के डर की वजह से और कोरोना महामारी के इस दौर में नौकरी खोने के डर के कारण इन
घटनाओं के खिलाफ आवाज नहीं उठाती हैं और मन ही मन घुटती रहती हैं. जिससे उन्हें कई
तरह की शारीरिक समस्याऐं होने लगती है. उन्हें निराशा, तनाव, अवसाद होता है और कई बार अति होने पर महिलाऐं आत्महत्या का प्रयास भी करती हैं.
कई बार महिलाऐं अपने साथ हुए लैगिंक उत्पीड़न के लिए अपने आप को ही दोषी मानने लगती
हैं और शर्मिदगी महसूस करती हैं. इसका
पारिवारिक जीवन/संबंधों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है. बड़ी हिम्मत करके महिला
शिकायत करती है लेकिन ना ही संस्था और ना ही समाज उसके साथ खड़ा होता है और वो अपने
आप को एकदम अकेले पाती है. पितृसत्तात्मक सोच के चलते परिवार और समाज भी पीड़िता को
ही दोषी ठहराता है। लैगिंक उत्पीड़न के चलते महिला के उत्पादन में कमी आती
है और वे विकास से पीछे होने लगती हैं. यह उनके पूरे जीवन को प्रभावित करता है.
ज्यादातर कंपनियों के लिए वर्क फ्रॉम होम एक नयी स्थिति है
और उनका इस तरह की परिस्थितियों से सामना नहीं हुआ था. इनके कारण जो वर्चुअल यौन
उत्पीडन के मामले आ रहे हैं वो खुद ही नहीं समझ पा रहे कि इसका हल कैसे किया जा
सकता है और उनकी पोलिसी में इस तरह के उत्पीडन को लेकर कोई क्लाज स्पष्ट रूप से
नहीं हैं. अब समय आ गया है कि कंपनियों/ संस्थानों को इस पर सोचना होगा और अपनी
पालिसी में बदलाव लाना होगा. महिलाओं को भी
ध्यान रखना चाहिए कि इस तरह की कोई घटना हो तो उसकी स्क्रीन शाट लें, मेसेज को
सुरक्षित रखें, बातचीत को रिकार्ड करे या वीडियो बना लें.
लेकिन लैगिंक उत्पीड़न जैसे मामलों को
सिर्फ कानून बनाकर नहीं रोका जा सकता क्योंकि लैगिंक उत्पीड़न महिलाओं की
व्यक्तिगत् समस्या नही है यह जेंडर आधारित हिंसा है. कार्यस्थल में होने वाला
व्यवहार समाज का ही आईना है जहाँ महिलाओं को दोयम दर्जे का और वस्तु के रुप में
माना जाता है. इस समस्या को तब तक नियंत्रित नहीं किया जा सकता जब तक पुरुषों की
सोच में बदला न आ जाये. महिलाओं के प्रति नजरिया बदलने पर ही इस समस्या से छुटकारा
हो सकता है. जब तक कि पुरुषों के द्वारा महिलाओं की बुनियादी मानवता को सम्मान
नहीं दिया जायेगा और उसे व्यवहार में नही लायेगा तबतक कोई भी कानून प्रभावी नहीं
हो सकेगा. इसके लिए हमें अपने परिवार, समाज के भेदभावपूर्ण ढ़ाँचे को भी बदलना
होगा, जहाँ लड़कों की हर बात को सही और लड़कियों के हर कदम को शंकापूर्ण नजरों से देखा
जाता है. हमें पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर चोट करनी होगी जहाँ महिलाओं को भोग की
वस्तु माना जाता है तब ही इस तरह की घटनाओं को खत्म किया जा सकता है.
2 comments:
Very well articulated point.
Thank you.
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