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We are committed to gender equality and women’s liberation


  • We stand against patriarchy and all forms of exploitation, inequality and oppression

  • We demand full, equal rights and equal status for women, in social, economic, political, legal and personal spheres

  • We work to organize women and enable them to claim their rights and win victories in their march to liberation

  • We aim at creation of a society free from exploitation and oppression

स्त्री मुक्ति संगठन जेंडर-बराबरी और स्त्री मुक्ति के लिए संकल्पबद्ध हैं


  • हम विरुद्ध हैं – पितृसत्ता के तथा हर प्रकार के शोषण, असमानता और उत्पीड़न के

  • हम लड़ते हैं – सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, कानूनी और निजी दायरों में औरत के पूर्ण, समान अधिकारों के लिए और समान प्रतिष्ठा के लिए

  • हम कार्यरत हैं – अधिकार हासिल करने और मुक्ति के रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए, औरतों को संगठित करने में और उन्हें सशक्त बनाने में

  • हमारा लक्ष्य हैं – शोषण-विहीन और उत्पीड़न से मुक्त समाज की स्थापना

Sunday, March 29, 2020

साठ पार के बाद

 - अंजलि सिन्हा

कुछ साल पहले मैंने एक लेख लिखा था ‘‘40 पार के बाद’’ जो स्त्राी मुक्ति संगठन की पुस्तिका ‘दासी गृहलक्ष्मी’ में ‘जब बच्चे बड़े हो गए’ नाम से छपा था। यह लेख ऐसी महिलाओं को ध्यान में रख कर लिखा गया था जो जिन्दगी के लगभग चार दशक बीत जाने के बाद की वास्तविकता से रूबरू कराता था। 40 पार कर जाने के बाद महिलाओं की आबादी के एक बड़े हिस्से की जिन्दगी में ऐसा दौर आता है जब उसे खालीपन का एहसास होता है। यह उन महिलाओं के सन्दर्भ में था जो शादी घर गृहस्थी और बच्चों में स्वयं को पूरी तरह झांेक देती हें। 40 के आसपास आते आते बच्चे बड़े हो गए होते हैं, वे खुद को सम्भालने लायक हो गए होते हैं या उस प्रक्रिया में होते हैं। कभी कभी वे चाहते भी नहीं कि माता पिता बच्चों की तरह उनका खयाल करें अथवा उनके सिर पर सवार रहें। इस दौर के भीतर औरत अपना नया कोई कौशल या रूचि भी विकसित नहीं कर पाती। शादी से पहले के दोस्तों -मित्रों का सर्किल छूट गया होता है या औपचारिक रूप ले लिया होता है। नए रिश्तेदार तो होते हैं जिन्हें दोस्त का दर्जा आम तौर पर नहीं दिया जा सकता है। उम्र के इस पड़ाव पर अपने लिए कोई नया उद्यम ढंूढ पाना भी कोई आसान बात नहीं होती है। और तब यही समय तनाव का कारण बनता है क्योंकि अब के समय में नाते-रिश्तेदार भी नहीं मिलते। कुछ लोग तनाव को मैनेज भी कर लेते हैं लेकिर तब वे समय को बीताने ‘‘काटने’’ लगते हैं।

अब दूसरे सन्दर्भ में हम यहां 60 पार के लोगों के सन्दर्भ में बात करेंगे। यह समय अपने नौकरी पेशा से रिटायरमेण्ट का होता है। इस समय को भी आप कुछ साल और बढ़ा सकते हैं, 65 के आसपास कर लीजिए। उम्र के इस पड़ाव पर नज़र दौड़ायें तो लगता है यहां भी थोड़ा पहले विचार करने की जरूरत है। मि. कुकरेजा हाल तक नौकरी में किसी अच्छी पोस्ट पर कार्यरत थे, अब वे सेवानिवृत हो गए हैं। सुबह बड़े चुस्ती फुर्ती में दफतर के लिए निकल जाते थे, शाम को थक कर घर लौटते थे, मन पर घर में भी दफतर ही चढ़ा रहता था। उनके अड़ोसी-पड़ोसी, मिलनेजुलने वाले सभी को उनके दफतर, उनके आर्किटेक्ट के काम के बारे में, सहकर्मियों के बारे में, किस किस बड़े नेता ने या अन्य गणमान्य ने उनके काम पर क्या प्रतिक्रियायें दी आदि ढेरों बातें थीं जो उन्हें दूसरों को बताना होता था। लेकिन अब जब वे रिटायर हो गए हैं तो उनके पास नया कुछ बात करने कोई विषय नहीं था क्योंकि किसी अन्य मुददे पर कभी कुछ विचार ही नहीं किया था।

अचानक वे बूढ़े व बीमार भी लगने लगे, घुटने का ऑपरेशन भी हो गया, बी पी की दवा लेनी होती है, कुछ न कुछ लगा रहता है तबीयत को। यदि ढलती उम्र के कारण स्वास्थ्य में गिरावट आए, कुछ बीमारियां अपने आगोश में ले लें तो इसे आप स्वाभाविक मानें लेकिन मिस्टर कुकरेजा का मामला यही नहीं था। आखिर दो महीने में कोई अचानक बूढ़ा नहीं हो जाता है। यह मामला खालीपन का था। किसी से बात भी किन मुददों पर करें, घर में कभी ज्यादा इन्वाल्व नहीं रहे और बाहर अब कुछ रहा नहीं।

दूसरे प्रकार का संकट ऐसा दिखता है जो सेल्फ आबसेस्ड होने का आत्ममुग्ध रहने का दिखता है। अपनी सारी उर्जा अपने लिए इस्तेमाल हो जाए, हमेशा समय कम लगे। प्रिया नौकरीशुदा हैं, घर लौट कर आराम करती हैं, फिर फिटनेस के लिए जिम जाती हैं, योगा करती हैं, घर लौट कर थोड़ा बहुत घर का काम निपटाया तब तक कल की तैयारी और सोने का वक्त़ हो जाता है। उसके घर यदि किसी को जाना हो तो वह समय को लेकर दस बार सोचे कि कब वह फुरसत में होगी। वह किसी के घर जाय तो भी असमय ही होता है यानि जब उसका काम निपट गया तो वह जाएगी तो फिर दोस्तों का घेरा कैसे बने, आत्मीयता कामकाजी मूड में निर्मित नहीं होती है। अब तो बच्चों के पास भी इतना समय नहीं होता कि उन्हीं का कान खा सके।

रिटायरमेण्ट तो नौकरी से होती है, जीवन से नहीं। और जीवन में पैसा कमाने के सिवा भी तो कोई काम होना चाहिए। किसी ने अपने फेसबुक वॉल पर लिखा था कि एक शख्स ने अपनी जिन्दगी का बड़ा वक्त़ अपने जीने की तैयारी में गुजारा और जब जीने की बारी आयी तो उन्हें लगा कि जिन्दगी निकल गयी। अब तो वह बूढ़े हो चले, ताकत नहीं बची, बीमारियां घेरने लगीं। सारी व्यस्तताएं खतम अब करें क्या ? सारी जिन्दगी इन्सान कमाने के लिए भागता रहता है और अन्त में अकेले रह जाता है। वे एक किस्सा सुनाते हैं इस लेखन में - नशे में डूबे एक आदमी को रात में प्यास लगती है, ढंूढने पर उसे लोटा मिल जाता है, लेेकिन वह उल्टा रखा था। छू कर बोला कि यह तो बन्द है, नीचे की तरफ छुआ तो फिर बुदबुदाया कि इसका तो पेंदा ही नहीं है। कुछ लोग जिन्दगी के नशे में धुत होते हैं। वे जीते नहीं बल्कि सोचते हैं कि जब नौकरी से मुक्ति मिलेगी तो क्या करेंगे ? किसी ने लिखा था कि हम अपने बच्चों की जिन्दगी बनाने में लगे हैं और वे अपने बच्चों की जिन्दगी बनाने में लग जाएंगे, इसी दुश्चक्र में हम सोशल स्किल भूल जाते हैं और मशीन बन जाते हैं।

आखिर व्यक्ति को अपने जीने के लिए कितना चाहिए ? लोग इसी चाहत में भटकते रहते हैं और अपने को भूल जाते हैं।

टालस्टाय की एक चर्चित कहानी है / शायद शीर्षक है/ ‘‘ढ़ाई हाथ जमीन’’ - कहानी यह है कि एक आदमी ईश्वर की काफी प्रार्थना करता है और किसी दिन उसके सामने देवदूत हाजिर हो जाते हैं। वह पूछते हैं कि तुम्हें क्या चाहिए ? आदमी कहता है कि मैं बहुत सारी जमीन का मालिक होना चाहता हूं। ‘बस्स इतनाही’’ देवदूत कहते हैं कि तुम जिस तरफ दौड़ते जाओ उतनी जमीन तुम्हारी होगी बशर्ते शाम तक तुम वहीं पहुंच सको जहां से शुरू किए थे। आदमी दौड़ने लगता है। हांफता है, रूकता है, फिर दौड़ता है। अचानक उसे खयाल आता है कि उसे वापस भी लौटना है। वह बुरी तरह थका रहता है। अंततः किसी तरह उस स्थान पर पहुंचता है जहां से शुरू किया है। वह पहुंचता है और दौड़ की इतनी थकान से वहीं मर जाता है। बाद में लोग उसे ढाई हाथ जमीन खोद कर दफनाते हैं।

एक व्यक्ति / अरूण/  फेसबुक पर लिखते हैं कि ‘‘बुढ़ापे को भी खुद के कंधों पर उठाने की हिम्मत हमें पैरों पर चलते हुए ही जुटा लेनी चाहिए। अपनी एक दुनिया बनानी पड़ेगी जहा आप अपनी इच्छा से जी सकें।’’’

आज इस मुददे पर इसलिए भी सोचना चाहिए क्योंकि मनुष्य का जीवनदर बढ़ गया है। वह तकनीकी रूप से 60-65 साल की उम्र में रिटायर हो जाता है, लेकिन शारीरिक रूप से चुस्त दुरूस्त होता है। 80 या 90 साल की उम्र अब वैसे भी आम हो चली है। जब जीवन मिल ही गया है तो उसे काटना क्यों पड़े, जितना संभव हो सके उसे जीने का प्रयास करना चाहिए, उपयोगी बनाने का प्रयास करना चाहिए, भले ही अन्यों के लिए उसकी उपयोगिता न्यूनतम हो, अपने लिए ही उपयोगी हो।
खुद अकेले आनन्द उठा लेने या मस्ती कर लेने की भी सीमा होगी यानि मान लो किसी को घुमने, यात्रा करने का शौक है तो वह करेगा, कुछ हो सकता है फिल्म देखने खाने पीने का शौकीन होगा तो वह करेगा। लेकिन कितना और फिर इसमें सैंस आफ अचीवमेण्ट के एहसास से दूरी बनी रहेगी।

कालेज की एक जागरूक टीचर 65 साल की उम्र में रिटायर हुईं। वे वैसे सामाजिक रूप से सक्रिय रही हैं। अध्यापन से इतर गतिविधियों में भी व्यस्त रहती थीं, शिक्षक आन्दोलन में भी सक्रिय रहती थीं, लेकिन उन्होंने भी हर काम की अगुआई अकेले की ; जिस काम में वे आगे चलीं उनका साथ देने के लिए उनके विद्यार्थी हमेशा रहते थे। लेकिन हमेशा अपनी ही पहल पर काम करने की सीमा होती है। जब आप ऐसी स्थिति में नहीं होते हैं तो कुछ ऐसे कामों के भागीदार बन सकते हैं जो कोई समूह या संगठन करते हैं।

दरअसल यदि हम अपने आप को बुद्धिमान और बुद्धिजीवी की श्रेणी में रखते हैं तो हो सकता है कि किसी समूह मार्का ताकत या पहल की जरूरत महसूस न हो क्योंकि ऐसा इन्सान तो दार्शनिक पहलुओं में, विचार के स्तर पर ही इतना उलझा या डूबा रह सकता है कि बाकी कारक उसके लिए गौण हो सकते हैं। इन बातों में डूबे रहना और उलझना भी मानवता के भविष्य के लिए अच्छा होगा। यह भी जरूरी नहीं कि वह कोई सफल आविष्कार कर ले या जटिल सिद्धांत का कोई सूत्र ढंूढ ले या कोई एक ऐसा आयडिया लेकर उपस्थित हो जाय कि नई पीढ़ी को उस पर शोध करना पड़े, लेकिन इस श्रेणी के लोगों का विचारों में खो जाना, किसी मुददे या समस्या का हल ढंूढना, ऐतिहासिक रूप से किसी विचारधारा, संगठन, आन्दोलन आदि के मूल्यांकन करने की प्रणाली विकसित करना आदि बहुत कुछ ऐसा होता है ऐसे लोगों के जददोजहद में। औेर यही जददोजहद तथा मशक्कत एवं उलझ जाना या कभी कभी कन्फुज हो जाना भी बहुत अच्छा होता है।
परन्तु महत्वपूर्ण मुददा यह है कि अपने बारे में तो हमें खुद ही सही आकलन बनाना होगा। 

मुगालता तो कुछ भी पाली जा सकती है, उस पर तो कोई प्रतिबन्ध नहीं है। वह कुछ भी बनने को लेकर भी हो सकती है ...

Posted by Stree Mukti at 6:47 AM
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Labels: Article- साठ पार के बाद

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