आशादेवी ने अपनी बेटी को खोया है, उसका दर्द शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता और देश के सभी न्यायपसंद
लोग इस घटना को याद कर हमेशा ही विचलित होंगे, दुखी होंगे। 16 दिसम्बर /2012/ की वह रात तो याद रहेगी,
जब उनकी बेटी के साथ उन अपराधियों ने जघन्य अत्याचार किया था, लेकिन उसके बाद भी ऐसी तारीखें कम
नहीं हुई हैं जिसमें बच्चियां, लड़कियां या औरतें दरिन्दगी का शिकार नहीं होती रही हैं।
निर्भया के सारे अपराधी जेल में हैं, एक ने कथित तौर पर जेल में आत्महत्या की और एक नाबालिग होने के नाते
बाल सुधार गृह से छूट गया। आज हक़ीकत यही है कि यह दोषसिद्ध लोग अगर विगत लगभग सात सालों से
सामान्य पारिवारिक जीवन नहीं जी पा रहे हैं, अपने दोस्त-मित्र परिजनों के साथ नहीं रह पा रहे हैं, प्रेम नहीं कर
सकते, शादी नहीं कर सकते, सन्तान सुख यदि चाहते हैं तो नहीं ले सकते, आदि सब आशादेवी को क्यों नाकाफी
लगता है ! ऐसा उन्हें क्यों लगता है कि जब तक उन्हें फांसी नहीं होगी, तब तक असली न्याय नहीं मिलेगा।
अगर उन्हें लम्बी कालावधि तक जेल में ही पड़े रहना पड़े तो क्या उनके लिए वह अधिक सज़ा नहीं होगी क्योंकि
रोज ब रोज उन्हें अपने आप को 12 दिसम्बर की वह रात याद आएगी, जब उन्होंने उस अपराध को अंजाम दिया
और उनका वहां सड़ते रहना बाकियों के लिए भी एक उदाहरण बनेगा। इसके बजाय उन्हें फांसी दी गयी ताो
फांसी के तख्ते तक पहुंचने भर के भय के बाद वह मरके मुक्त हो जाएंगे।
आशादेवी के साथ पूरी सहानुभूति रखते हुए यह उम्मीद की जानी चाहिए कि वे अब ‘निर्भया और नहीं’ को सम्भव
बनाने के बारे में सोचें। वे बलात्कार जैसे जघन्य अपराध पर दूसरे प्रयासरत ताकतों के साथ मिल कर यह भी सोचें
कि इससे हमारी बेटियां कैसे बचें, यह भावना किसी भी मर्द में आती क्यों है और यौनिक हिंसा इतने बड़े पैमाने पर
होती क्यों है ?
सच तो यह है कि ऐसी मानसिकतावाले पुरूष अपराध को अंजाम देते वक्त़ कभी सज़ा के बारे में नहीं सोचते हैं
वरना पकड़े जाने, जेल जाने या सामाजिक बेइज्जती भी उन्हें ऐसे अपराध को अंजाम देने से रोक देती। उन्हें उस
वक्त़ फांसी की सज़ा का खयाल भी नहीं आएगा।
आम तौर पर समाज में अपराधों को लेकर निर्द्वन्दता दिखाई देती है, यौनिक अत्याचारों को लेकर भी लोग जितने
बेखौफ रहते हैं - यह मानते हुए कि उन्हें सज़ा मिलने से रही, क्योंकि ऐसे मामलों मे दोषसिद्धि दर बहुत कम है -
इतना ही नहीं राजनीतिक तथा सामाजिक तौर पर रसूख रखनेवाले लोगों को, जो ऐसे अपराधों में लिप्त रहते हैं,
उन्हें बचाने के लिए किस तरह पुलिस प्रशासन, राजनीतिक पार्टियां ही नहीं जनसमर्थन भी जुटा लिया जाता है,
उससे समाज में यह भावना और मजबूत होती है कि कितना भी अत्याचार करे, पकड़े नहीं जाना है।
हम लोगों ने अपने आंखों के सामने देखा कि किस तरह उन्नाव के बलात्कारी विधायक को बचाने के लिए जुलूस
निकले, पीड़िता को तथा उसके परिजनों को मारने की साजिश रची गयी ; किस तरह शाहजहांपुर की कानून की
छात्रा को - जिसने सत्ताधारी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता के खिलाफ जुबां खोली थी - तथा उसके करीबियों को फिरौती
मांगने के आरोप में जेल की सलाखों के पीछे भेज दिया गया ; किस तरह कटरा की मासूम बच्ची के साथ दरिन्दगी
को अंजाम देनेवाले अपराधियों को बचाने के लिए निकले जुलूसों में तिरंगा उठाए सत्ताधारी पार्टी के अग्रणी नेता
दिखाई दिए, यह बात पूरे समाज में फैलती है और गलत सन्देश जाता है।
हैदराबाद में वेटरनरी डॉक्टर के साथ सामूहिक बलात्कार के अभियुक्तों को जिस तरह एक संदिग्ध कही जा
सकने वाली मुठभेड में मार दिया गया - जिसका खुद मानवाधिकार आयोग ने तथा उच्च न्यायालय ने संज्ञान लिया -
ऐसी घटनाओं को मिली वैधता एक तरह से अमानवीय व्यवहार को आम जनजीवन का हिस्सा बना देती है।
नॉर्मलायजेशन की प्रक्रिया चलेगी जिसमें समाज में समाजीकरण की जो प्रक्रिया चलती है, उसमें योजनाबद्ध हत्या
भी शामिल होगी। हमारे जैसे समाजों के समाजीकरण में पहले से ही तमाम तरह के हिंसात्मक व्यवहार शामिल हैं,
मसलन जातीय, धार्मिक हिंसा, पितृसत्तात्मक सोच के कारण महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा, जिसमें गाय की
रक्षा के लिए की जानेवाली हिंसा भी जुड़ गयी है। इसी तरह हमारे जैसे पिछड़े समाज में तमाम तरह की हिंसा
अनेकों प्रकार के बहाने लेकर घटित होती रहती है। हिंसा का सहज स्वीकारभाव नहीं होता तो हैदराबाद एनकाउन्टर
जिसमें बलात्कार के चारों आरोपियों को बिना पेशी के पुलिस ने गोलियों से उड़ा दिया था, उस पर विजय नहीं मनाया
जाता बल्कि सवाल किया जाता कि पुलिस को यह हक़ किसने दिया। क्या नौकरी जॉइन करने में उन्हें यह भी
लाइसेन्स जारी किया जाता है कि आरोपी पकड़े जाने के बाद तुम्हारी दया पर निर्भर रहेगा ?
कानून की प्रकृति पर भी विचार जरूरी है, और वह सख्त तथा मुकम्मल होना चाहिए। जैसे हम कह सकते हैं कि
कानून में खामी के कारण अरूणा शानबाग को न्याय नहीं मिला। ज्ञात हो कि अरूणा नर्स थी जिसके साथ उस
अस्पताल के वार्डब्वाय ने बलात्कार किया था। अरूणा के मुंह में कपड़ा ठूसने के कारण उसका दम घंूटा और
बलात्कार के बाद वह कोमा में चली गयी, तो चालीस साल तक उसी अस्पताल के बिस्तर पर जिन्दा लाश की तरह
पड़ी रही। अस्पताल के उसके सहकर्मियों ने बेमिसाल मानवीय व्यवहार का परिचय दिया और बाकायदा डयूटी
लगा कर अरूणा की देखभाल की। इस बलात्कार का आरोपी अपनी नियत सज़ा काट कर बाहर आया और फिर
शहर बदल कर आम पारिवारिक जीवन जीने लगा। यदि वह ताउम्र जेल में होता उससे मेहनत करवा कर उसका
लाभ उसे ना देकर समाज को मिलता तो हम वाकई कह सकते कि अरूणा को न्याय मिला।
इसलिए विचारणीय प्रश्न यह है कि न्याय मिलना किसे कहा जाए ? एनकाउन्टर के साथ साथ क्या इसके लिए भी
पैरोकारी की जानी चाहिए कि हर प्रकार के आरोपी को हिरासत में मौत मिले तब अपराध थम जाएगा ?
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