विवाह और व्यक्तिगत संबंधों में चुनाव के अधिकार को लेकर लड़नेवाली रकमाबाई हमारे लिए एक प्रेरणा स्त्रोत है। रकमा के पिता का देहांत जब वो दो साल की थी तभी हो गया था। छः वर्ष पश्चात्, उनकी 23 वर्षीय मां जयंती बाई का दूसरा विवाह डॉ साखाराम अर्जुन के साथ कर दिया गया। चूंकि डॉ अर्जुन सामाजिक और धार्मिक सुधारकों की संगत में रहते थे, इसलिए रकमा को घर पर प्रोत्साहनशाली वातावरण मिला।
फिर भी, पारिवारिक दबाव के कारण मात्र 11 वर्ष की उम्र में 19 वर्षिय दादाजी भिकाजी के साथ रकमा का विवाह कर दिया गया। उन दिनों के रिवाजों के विपरित, बात यह तय हुई थी कि दादाजी भिकाजी घरजमाई बन कर रहेंगे, और पढ़ लिख कर एक 'अच्छे इंसान' बनेंगे। लेकिन छः महिने में परिस्थितियां कुछ यूं बदली, कि दादाजी अपनी बात से मुकर् गए।
जब रकमा बालिग हुई तो उन पर दादाजी ने साथ रहने का दबाव बनाया। रकमा ने इस विवाह को स्वीकारने से मना कर दिया, जो की उनकी इच्छा के विरुद्ध एक बाल विवाह था। इस फैसले में उनके पिता ने रकमा का पूरा साथ दिया।
1884 में दादाजी ने कानून का सहारा लिया, कि रकमा उनके साथ रहे। रकमा ने भी अंग्रेज़ी कानून का सहारा लेकर खुद का बचाव रखा कि उसकी इच्छा के विरुद्ध जबरन उसे पति के साथ रहने पर बाध्य किया जा रहा है। उनके विरोध की गूंज लंदन तक पहुंची। अख़बारों के मुखपृष्ठ इस खबर से भर गए। केस के बारे में बहुत कुछ कहा और लिखा गया। एक तर्क यह भी था कि कानून हिंदू रिवाजों और परम्पराओं का सम्मान नहीं करता। दूसरी सुनवाई रकमा के खिलाफ गई। उनकी हार हुई, और कोर्ट ने यह आदेश दिया कि या तो वह अपने पति के साथ रहे, या फ़िर जेल जाएं।
रकमा ने घोषणा की कि वह जेल जाएंगी, परन्तु पति के साथ नहीं रहेंगी। इसके परणामस्वरूप बहुत अफ़रा तफ़री मच गई और कई स्तर पर सामाजिक बहस छिड़ी। बालगंगाधर तिलक ने यह कहा कि रकमा बाई का रवैया अंग्रेज़ी शिक्षण का नतीजा है, और हिंदू धर्म खतरे में है।
हालांकि उन्हें जेल जाने की जरूरत नहीं पड़ी। ढेर सारी कानूनी कार्रवाई के बाद, जब रकमा बाई का दादाजी भिकाजी के साथ विवाह का प्रतिज्ञान किया गया तो उन्होंने क्वीन विक्टोरिया को अपील की, जिन्होंने कोर्ट के फैसले को रद्द किया और रकमा - दादाजी के विवाह को भंग घोषित किया। अंततः, इस मामले से उत्पन्न बहस और विचार विमर्श के चलते, सन 1891 में "ऐज ऑफ कंसेंट (Age of Consent) अधिनियम" पारित हुआ, जिसके तहत देश में सहमति की उम्र 10 वर्ष से बढ़ा कर 12 वर्ष कर दी गई।
वर्ष 1894 में, रकमा बाई ने लंदन स्कूल ऑफ मेडिसिन फॉर वूमेन से अपनी डॉक्टर ऑफ मेडिसिन (D.M.) की डिग्री प्राप्त की, और मेडिसिन की पढ़ाई के बाद प्रैक्टिस करने वाली वह दूसरी भारतीय नारी बनी। वर्ष 1895 में भारत लौट कर उन्होंने अपना कार्य जारी रखा और ज़िन्दगी भर महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए वह कार्यरत रहीं।
प्रस्तुति- वर्षा मेहता
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