स्त्री मुक्ति संगठन सन 2000 से ही हर साल 3.4 दिन की रिहाइशी कार्यशाला का आयोजन करता आया है. कार्यशाला में संगठन के कार्यकर्ताओं और सदस्यों के अतिरिक्त अन्य महिला साथी भी जो महिला मुक्ति की राजनीति में विश्वास रखते हैं शिरकत करते रहे हैं. संगठन ने इस बार अपनी 19 वीं कार्यशाला का आयोजन 18 से 20 अक्टूबर 2018 को वृन्दावन में किया, इसमें दिल्ली, इलाहाबाद के अतिरिक्त पुणे से महिलाओं ने सक्रिय भागीदारी निभाई। इस कार्यशाला में मुख्य सत्र रहे.
ऽ आंतरिक /अंदरूनी पितृसत्ता और जेंडर
ऽ वृन्दावन विधवा और एकल महिला की पहचान का सवाल
Me Too केम्पेन
ऽ क्यों मैं एक नारीवादी नहीं हूँ - एक नारीवादी घोषणापत्र, पुस्तक पर चर्चा
ऽ यूनिवर्सल हेल्थ केयर
ऽ समकालीन भारतीय समाज में जाति और जेंडर का अंतर्सम्बध
ऽ समकालीन भारतीय राजनैतिक हालात
प्रत्येक सत्र में गंभीर चर्चा हुईं। सत्रों में उठे विचारों ने उभरते राजनीतिक और सैद्धांतिक मुद्दों पर हमारी समझ को बढ़ाने और विभिन्न समूहों के अनुभव साझा करने और उनसे सीखने का मौका दिया। शाम को होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी सभी साथियों ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। समाज में महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा के विभिन्न रूपों को उजागर करना और आज के भारतीय राजनीतक माहौल को भी सामने लाना, सांस्कृतिक कार्यक्रम का खास फोकस रहा.
कार्यशाला की शुरुआत एक.दुसरे के परिचय और गानों से हुई, फिर दिल्ली. रोहिणी क्षेत्र के साथियों ने एक नाटक के जरिये जेंडर और पितृसत्ता पर चर्चा शुरू की.
इस नाटक में 4 महिलाओं के जीवन के बारे में रखा गया. पहली महिला गृहिणी थी, दूसरी महिला शादीशुदा होने के साथ नौकरी भी करती थी, तीसरी महिला ने अपने पति.बच्चो की देखभाल के लिए अपनी बैंक मैनेजर की नौकरी छोड़ दी थी, चौथी महिला ने अपना केरियर बनाया लेकिन उसकी इच्छा होते हुए भी उसकी शादी नहीं हो पाई क्योंकि केरियर बनाए के चलते उसकी शादी में विलंब हुआ और फिर उसकी अपनी जाति में उसके सुयोग्य वर नहीं मिल पाया। सबकी अलग.अलग समस्याएं थी, लेकिन सभी की कहानी में कुछ बातें समान निकल कर आई, उनके अपनी कहानी के बयानों में भी अंतर्विरोध थे, जहाँ एक तरफ एक महिला कहती हैं कि उनका परिवार उनको बहुत प्यार करता है वही दूसरी तरफ उनको इस बात से भी छटपटाहट है कि उनके परिवार वाले उनकी इच्छाओं और मनोदशा को समझते नहीं हैं, महिलाओं की कहानियों में एक तरफ अपनी जीवन का तरीका खुद चुना हुआ बयां होता है, वही दूसरी तरफ वे अपनी जीवन के किसी भी निर्णय को लेकर स्वायत नज़र नहीं आती, चारों ही अपनी स्थिति से पूर्ण रूप से खुश नहीं हैं, लेकिन उसको बदलने की कोशिश चारों में ही नहीं है.
इस नाटक के जरिये भारतीय महिलाओं के जीवन के कुछ पहलू रखे गए, किस तरह महिलाओं के जीवन और आसपास में पितृसत्ता का ढांचा बुना हुआ है जिससे निकलने की एक तड़प है उनके अन्दर लेकिन वो कैसे हो इसका उनके पास अक्सर कोई सुसंगत जवाब नहीं है। महिलाये स्वतन्त्र होना चाहती है लेकिन वो कैसे संभव होगा उसपर स्पष्टता नहीं हैं.
इस प्रस्तुति के बाद उन चारों पात्रों की कहानी से निकले मुद्दों पर चर्चा हुई। पितृसत्ता के जटिल और न दिखने वाले पक्ष जो अक्सर औरतों के अपने अन्दर भी निहित रहते हैं इसपर काफी चर्चा हुईं उसके बाद नारीमुक्ति के संघर्ष के जटिलताओं से हम कैसे लड़ सकते हैं . इस पर स्त्रीमुक्ति संगठन के साथियों ने बात रखी।
स्त्रीमुक्ति के साथियों का मानना है कि पितृसत्ता से मुक्ति के लिए सिर्फ आजादी की इच्छा और मांग से काम नहीं चलेगा, हालाँकि ये उस दिशा में पहला कदम जरुर होगा लेकिन आजादी के मांग के साथ जिम्मेदारी की बात करना भी जरुरी हैं क्योंकि हम महिलाओं को पूर्ण इन्सान के रूप में देखते हैं जो आजाद हो और जो वयस्क व्यक्ति होने के नाते अपने जिम्मेदारियों का भी पूर्ण रूप से निर्वाह करती हैं ''जिम्मेदारी '' की नारीवादी व्याख्यान पर भी प्रतिभागियों ने चर्चा की
महिलाओं के समग्र आजादी के लिए पुरे सामाजिक ढांचे की बदलाव की जरुरत हैं जो एक आन्दोलन के रूप में ही हो सकती है आंदोलन के धारा से हटकर सिर्फ निजी उपलब्धि के भरोसे पितृसत्ता के ढांचा को गिराया नहीं जा सकता पितृसत्ता के मूल्यों को कैसे अक्सर महिलाये भी आत्मसात कर लेती हैं इस बात को भी चिन्हित करना होगा और ऐसे आत्मसातीकरण के खिलाफ लड़ना भी पड़ेगा पितृसत्ता से मुक्ति के लिए समाज की बनावट और महिलाओ की एजेंसी . दोनों को समझना होगा। सामग्रिक मुक्ति अकेले व्यक्ति को नहीं मिल सकती बल्कि उसके लिए ऐसे वैकल्पिक सामाजिक ढांचे के डिज़ाइन बनाने होंगे जिसमें व्यक्तियों को ज्यादा स्वतंत्रता मिले जिसमें हर किसी की गरिमा का सम्मान हो।
वृन्दावन विधवा और एकल महिला की पहचान का सवाल
इस विषय पर स्त्री मुक्ति संगठन की साथी अंजलि सिन्हा ने बातचीत रखी। सबसे पहले उन्होंने महिलाओं के बीच विधवा.सधवा की पहचान के भेद पर सवाल उठाया , स्त्री मुक्ति की लड़ाई में पहचान के आधार पर राज्य से मांग करने की सीमाओं को सामने रखते हुए उन्होंने कहा कि पहचान के भेद को मिटाने की लड़ाई भी महत्वपूर्ण है लेकिन उसमें हमको यह सतर्कता रखनी होगी कि कही वो पितृसत्ता के सिम्बल्स को स्थापित तो नहीं कर रही हैं।
अपनी इस बात को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने भारत में विधवा और एकल महिलाओं को पहचान के आधार पर राज्य से मिलने वाली सुविधाओं का आलोचनात्मक विश्लेषण सामने रखा उन्होंने महिला आन्दोलन के तरफ से भी इस मुद्दों को उठाने के तरीके पर सवाल उठाया , उनका कहना था कि समाज सुधारकों के बीच विधवा महिला का मसला 19वीं सदी के शुरूआती समय से ही बना हुआ है , 19वीं सदी के शुरू में राजा राममोहन राय द्वारा सतीप्रथा का विरोध किया गया और 1818 में फिर सती प्रथा उन्मूलन का कानून आया। भारतीय समाज में इस कानून का कड़ा विरोध भी हुआ। 19वीं सदी के मध्य में ईश्वरचंद्र विद्यासागर विधवा पुनर्विवाह की बात करते हैं। 1871 में हिन्दू री.मेरिज एक्ट आता है।
इन सभी आंदोलनों को गौर से देखे तो उनमे विधवा उद्धार का डिस्कोर्स साफ़ दीखता हैं मानो वे पतित महिला के जिन्हें उद्धार की जरुरत हैं!
हमारे देश में विधवा होना पुरुष के विधुर होने से अलग असर डालता है. विधुर होना या न होना किसी पुरुष के परिचय का केन्द्रविंदु नहीं बनता लेकिन महिलाओं के संदर्भ में उनके वैवाहिक स्थिति उनके सधवा या विधवा होना उनके अस्तित्व का ही केन्द्रविंदु बन जाती हैं. उदाहरण के लिए . नेहरू की पत्नी के मरने के बाद कभी भी उनके परिचय में विधुर शब्द का इस्तमाल नहीं किया गया लेकिन सोनिया गाँधी और मेनका गांधी के परिचय में हमेशा उनकाराजीव गाँधी और संजय गाँधी की विधवा होना जोड़ दिया जाता है।
विधवा होने की पहचान बनती है सधवा होने की पहचान के बरक्स समाज में महिलाओं को विधवा सधवा परित्यागता तलाकशुदाए गैर.शादीशुदा आदि रूपों में पहचान मिलती है और ये पहचान उनके अस्तित्व का अभिन्न हिस्सा मान लिया जाता हैं। राज्य की समझ में भी इसका असर साफ़ दिखता है , 2001 की जनगणना में एकल महिलाओं की संख्या साढ़े 7 करोड़ थी जो कि 2011 में और भी बढ़ी है इस गणना में विधवाओं और तलाकशुदा महिलाओं की गिनती होती है तो इसे देखना होगा। वही दूसरी तरह महिलाओं के कल्याण के लिए चलने वाली सरकारी नीतियों में भी ये भेद देखा जा सकता है , सरकार की तरफ से विधवा पेंशनए एकल महिला पेंशनए उज्ज्वला योजना आदि सुविधाये महिला के वैवाहिक स्थिति के आधार पर दी जाती हैं लेकिन हम कैसे मान लेते है कि जो महिलाएं शादीशुदा है और विधवा नहीं है उनको किसी प्रकार की खास सुविधाए पेंशन इत्यादि की जरुरत नहीं है हिताधिकारियों का वैकल्पिक वर्गीकरण कैसे हो ये सोचने वाली सवाल हैं।
सरकार का सारा जोर परिवार पर रहा है। वृद्ध माता.पिता के भरणपोषण के कानून ;जो 2007 में आया था , के तहत भी सजा बेटे को ही दी जायेगी इसी तरह वृद्ध नागरिक की जिम्मेदारी से सरकार अपना पल्ला झाड़ लेती है। राज्य सरकार की इस तरह की नीतियाँ और कानून पितृसत्ता को तोड़ने के बजाएं सशक्त करती हुईं दिखाई देती हैं।
विधवा व् एकल महिला के मसले पर महिला आन्दोलन ने कोशिश की कि इसके बारे में स्थापित सामाजिक छवि सोच और अपेक्षाओं को बदला जायें , इसके मद्देनजर कुछ कार्यक्रम भी लिया गया जैसे विधवा महिलाएं भी लाल साडी पहन कर जुलुस निकाली विधवा महिलाओ के पास भी सिंदूर.बिंदी लगाने का अधिकार हो, चॉइस हो . इस तरह की बात रखी गयी लेकिन अभी सोचने वाली बात ये भी हैं कि कही बिंदी.सिंदूरए लाल साडी आदि पहनने का अधिकार की मांग करना . फिर से पितृसत्ता के सिम्बल को तो स्थापित नहीं कर रहे.
इस विषय पर चर्चा में निकले बिंदु...
आधारभूत जरूरतों को पहचान के साथ जोड़ना सही नहीं है। सरकार की कल्याणकारी योजनाओं में हर व्यक्ति को यूनिवर्सल रूप से आधारभूत सुविधाए मिलनी चाहिए , किसी की विधवा होने के तहत पेंशन देना वो भी नाममात्र का हो ये उसके गरिमा के खिलाफ भी हैं और ये उसको मदद भी नहीं पहुचाता हैं।
आन्दोलन को भी इस बात की तरफ ध्यान रखना चाहिए कि कही महिलाओं के वैवाहिक स्थिति के आधार पर सुविधा की मांग करना पितृसत्ता के मूल्यों को ही स्थापित तो नहीं कर रही हैं। अतः आन्दोलन को अपनी आज की मांगो को अपने दूरगामी लक्ष्यए यानि कि पितृसत्ता से मुक्ति को ध्यान में रखकर तय करना चाहिए।
MeToo कैम्पेन
पहले दिन के दो लम्बे सत्रों के बाद प्रतिभागियों ने एक इनफॉर्मल सेशन में " मी टू " कैम्पेन पर चर्चा शुरू की। मी टू आज के समय में एक ऐसी मुहीम है जिसने महिला आन्दोलन के अन्य तमाम ज्वलंत मुद्दे यानि .यौनिक हिंसा. को वैश्विक पैमाने पर फोकस पर लाया वर्कशॉप में आये साथियों में से कुछ के लिए ये कैम्पेन नया था। उनकी इच्छा थी कि इसकी शुरुआत के बारे में भी बताया जाये इलाहबाद की साथी डॉ निधि और दिल्ली की साथी लक्की ने कैम्पेन की शुरुआत के बारे में जानकारी रखी। उसके बाद सभी साथियों ने 8.10 के समूह में बैठकर अलग अलग से इसकी चर्चा कीए ताकि सभी इन छोटे समूहों में अपनी बात रख सके। अलग अलग समूह में इस कैम्पेन पर चर्चा की दिशा उसमें शामिल साथियों की इच्छा व जिज्ञासा के अनुसार रही किसी समूह ने इस कैम्पेन के बारे में ही सीधी चर्चा की , किसी समूह ने यह चर्चा स्कूल और घरों में होने वाली यौनिक हिंसा के अनुभवों पर की , कुछ समूहों ने इस बात पर भी चर्चा की कि अक्सर महिलाओं के बहुत सारे कार्यस्थलों को वर्कस्पेस की तरह देखा ही नहीं जाता जैसे घरेलु कामगार का कार्यस्थल यौन कार्य में लगी महिलाओ का कार्यस्थल इत्यादि। अतः इनके लिए मी टू कैंपेन का क्या मायना हो सकता हैं। कैसे उनके मुद्दों को उठाया जा सकता हैं।
डिनर टाइम तक सभी समूह इस विषय पर चर्चा करते रहे। अंततः यह बात हुईं कि मी टू एक अहम् कैंपेन हैं लेकिन कैसे हिंसा का सामना कर रही अधिकतम कामगार महिलाओं के मुद्दो को भी सफलतापूर्वक उठाया जाये . ये अभी भी एक ओपन सवाल बना हुआ हैं। इस विषय पर और अधिक चर्चा की जरुरत हैं।
सांस्कृतिक कार्यकर्म
रात्रि भोज के बाद सभी साथी फिर से मीटिंग रूम में सास्कृतिक कार्यकर्म के लिए इक्कठा हुए। कार्यक्रम की शुरुआत महिला आन्दोलन के गानों से हुई दिल्ली के साथियों ने पितृसत्ता पर एक व्यंगात्मक प्रस्तुति पेश की इलाहबाद से आई एक युवा साथी ने पुरे दिन की चर्चा को सुनने के बाद यौनिक हिंसा पर एक बहुत ही खुबसूरत मोनोएक्ट प्रस्तुत किया।
दूसरा दिन
"क्यों मैं एक नारीवादी नहीं हूँ एक नारीवादी घोषणापत्र " पुस्तक पर चर्चा
इस पुस्तक की लेखिका जेस्सा क्रिस्पिन हैं मूलतः ये पुस्तक अंग्रेजी में है जिसका नाम है Why I Am Not a Feminist : A Feminist Manifesto ये अभी हाल ही में 2017 में लिखी गई है। जिसको Melville House, Brooklyn and London द्वारा प्रकाशित किया गया है। स्त्री मुक्ति संगठन की साथी अंजली सिन्हा ने इसका हिंदी अनुवाद किया है। इस पुस्तक के विस्तृत परिचय के बारे में आप स्त्री मुकित संगठन के ब्लॉग पर जाकर पढ़ सकते हैं (http://www.streemukti.in/ 2018/08/blog-post.html)
इस सत्र में अंजली सिन्हा ने पुस्तक के परिचय के साथ शुरुआत की तत्पश्चात उन्होंने पुस्तक के हर अध्याय में उठे महत्वपूर्ण बिन्दुओं को एक.एक करके रखा सभी मुद्दों पर चर्चा में आया कि आज की प्रगतिशील राजनीति के लिए ये एक महत्वपूर्ण पुस्तक है , खासकर उनके लिए जो अपने आप को नारीवादी कहते है। ये किताब अपने नाम से विपरीत नारीवादी होने के सही मायने क्या होने चाहिए उसको बताती है।
यूनिवर्सल हेल्थ केयर / सार्वजनीक स्वास्थ्य सेवा
इस विषय पर स्त्री मुक्ति संगठन की साथी डॉ. निधि मिश्रा ने बातचीत रखी उन्होंने युनिवर्सल हेल्थ की अवधारणा क्या है। भारत में स्वास्थ्य सेवा की स्थिति क्या है, इस पर बात रखी यूनिवर्सल हेल्थ सर्विस की हमारी मांग क्यों होनी चाहियें इस पर भी उन्होंने रोशनी डाली।
डॉ. निधि ने बताया कि WHO के अनुसार यूनिवर्सल हेल्थ केयर का अर्थ है. सभी को विज्ञानसम्मत चिकित्सा निशुल्क उपलब्ध हो। ये कोई असंभव बात नहीं है। लेकिन इसका अमल ही नहीं होता इसकी रोशनी में उन्होंने भारत के अन्दर हेल्थ केयर की स्थिति पर बात की WHO ने 1978 के Alma Atta मेंए घोषणा पत्र (सनद) में यह निर्णय लिया कि सन 2000 तक सभी के लिए स्वास्थ्य ;सेवा उपलब्ध होनी चाहिए इस सनद का हस्ताक्षरी है। 2018 खत्म हो चला है अभी तक भारत में यह संभव नहीं हो पाया है।
2010 में डॉ. श्रीनाथ रेड्डी की अध्यक्षता में गठित HLEG (हाई लेवल एक्सपर्ट ग्रुप) ने ये सुझाव दिया था कि भारत के स्वास्थ्य बजट के लिए GDP (सकल घरेलु उत्पादद्) के 1.4 % से बढाकर मात्र 2.5% कर देने भर से इस दिशा में बहुत सुधार किया जा सकता है लेकिन न कांग्रेस सरकार ने ऐसा किया न भाजपा सरकार ने। सन 2022 तक यह बजट 3ः कर देने का सुझाव था लेकिन उसके उलट 2014 में पहले यह 1 . 4% कर दिया गया और अब पुनः 1.40% पर अटका है. भारत स्वास्थ्य सेवाओं में GDP का सबसे कम हिस्सा खर्च करने वाले देशों में गिना जाता है। इस क्षेत्र में भारत अपने पडोसी देश. चीन बांग्लादेश भूटान, श्रीलंका आदि से भी पीछे है। श्रीलंका और पेरू जैसे देश यदि सबके लिए निशुल्क स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करा सकते हैं तो निश्चित ही भारत में ऐसा ना कर पाना राजनैतिक इच्छाशक्ति और इरादों की कमी के कारण है।
ये भी देखा जा सकता हैं कि महिलाओं के स्वास्थ्य संबंधी जो योजनायें लाई जाती हैं, उनका फोकस प्रजनन रिप्रोडक्शन में ही रहता है दूसरी तरफ स्वास्थ्य सेवाओं की दिशा बीमारी के रोकथाम के बजाय उनके होने के बाद के उपचार की तरफ ज्यादा है। सरकार द्वारा स्वास्थ्य सुविधा का इस्तेमाल करना लोगों के लिए मुश्किल होता जा रहा है। इसके लिए सरकार ने बहुत सी शर्तें लगा दी हैं। जैसे अभी आधारकार्ड को सरकारी सुविधाओं के साथ जोड़ दिया गया है। दूसरी तरफ इन योजनाओं में सरकार सीधे स्वास्थ्य सुविधा की व्यवस्था से अपनी जिम्मेदारी ख़त्म करती जा रही है। ज्यादा फोकस केस ट्रान्सफर की तरफ है. जैसे आयुष्मान भारत बीमा योजना सरकारी विभागों में काम करने वाले कर्मचारियों के लिए जो स्वास्थ सुविधा हैं उसका झुकाव भी प्राइवेट हेल्थ सेक्टर की तरफ होता जा रहा है। ज्यादा जोर पब्लिक.प्राइवेट पार्टनरशिप की तरफ है। निजी कम्पनियों द्वारा स्वास्थ्य बीमा करवाने की योजना निशुल्क स्वास्थ्य सेवा की तरफ बढाया कदम नहीं है बल्कि निजी बीमा कम्पनियों को फायदा पहुँचाना है। यह पूंजीवाद को और मजबूत करने की कवायत है।
उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि सरकार की जिम्मेदारी है कि वो लोगों को स्वास्थ्य की सुविधा दे न कि बीमारी के उपचार के लिए पैसा। सभी के लिए विज्ञानं सम्मत निशुक्ल सरकारी हेल्थकेयर की मांग जन आन्दोलन का हिस्सा बनाना चाहिए। सरकार का फोकस बीमारी के उपचारात्मक दिशा से आगे बढ़कर प्रिवेंशन की तरफ होना चाहिए। इसके लिए जरुरी है कि रहने की जगह , खाना और वातावरण सभी स्वस्थ हो। उनको और स्वस्थ और बेहतर बनाना यूनिवर्सल हेल्थ केयर का हिस्सा होना चाहिए।
समकालीन भारतीय समाज में जाति और जेंडर का अंतर्सम्बध
इस सत्र का संचालन दिल्ली की साथी सीमा माथुर और चंदर निगम ने किया सत्र की शुरुआत में उन्होंने सभी को छोटे समूहों में बाँट कर चर्चा करने के लिए एक विषय दिया " आज के समय में जाति टूटी है या मजबूत हुई है?"
सभी समूहों ने इस पर चर्चा की और अपने समूह की राय अन्य साथियों के साथ साँझा किया।
सभी समूहों की प्रस्तुति ने बहुत से महत्वपूर्ण बिंदु सामने रखे. जिसमें जाति के नए रूपों को समझने और उसके जेंडर के साथ सम्बन्ध को उजागर किया इस सत्र की चर्चा से निकले कुछ अंश ;
अगर जाति के संबंधों को देखे तो जातिवाद की कुछ पुरानी बेड़ियाँ टूटी भी हैं। लेकिन जाति व्यवस्था ने उसके इर्दगिर्द नई बेड़ियों का निर्माण भी कर लिया है। जातिवाद के विरोध में चले दलित आन्दोलन ने जाति के सवाल को महत्वपूर्ण बनाया है। आज कोई भी ये नहीं कह सकता कि जातिवाद अच्छी चीज है लेकिन अगर हम अपने आसपास देखे तो जाति को बनाये रखने वाले नए रूप हमको दिखाई देते हैं।
समाजए मीडिया , शिक्षा, रोजगार, राजनीती आन्दोलन ,बाजार सभी में जाति को बनाये रखने के पक्ष हमको दिखाई देते हैं। अंतरजातीय विवाह करने की छुट कानून देता है लेकिन ओनरकिल्लिग़ के केस आये दिन हम सुनते है। आज प्रेम करने पर सीधे कोई रोक नहीं लगाता दिखता लेकिन उसके बरक्स अपने समाज के युवाओं के लिए परिचय सम्मलेन आयोजित किये जाने का प्रचलन बहुत बढ़ने लगा है. अग्रवाल समाज , यादव समाज, मिथिला समाज आदि नए रुप सामने आ रहे हैं। शादी के लिए अख़बार में जो इश्तहार आते हैं वो भी जाति और समाज के कॉलम्स मे बंट कर आता है। पदमावत जैसी फिल्म बनती है जिसमें राजपुर की शान को गोरवान्वित किया जाता है। राजनीति में भी जातियों के बीच की पहचान ज्यादा बढ़ी है। इसने जातिवाद को ज्यादा बदला नहीं है बल्कि ज्यादा जटिल बना दिया है। अगर दलित आन्दोलन को देखे तो फुले पेरियार और अम्बेडकर द्वारा चलाये गए आन्दोलन में जहाँ जातिवाद पर सवाल जाति से उन्मूलन की दिशा में था आज के समय में उसको प्रतिनिधित्व करने वाली चुनावी पार्टिया जाति की पहचान को बनाये रखने की दिशा में दिखाई देती है।
जातीय हिंसा का सम्बन्ध जेंडर के साथ गहरे रूप से जुड़ा है। दलित महिला को दोहरी हिंसा का सामना करना पड़ता है। किसी जाति को सबक सिखाने के लिए उस जाति की महिला के साथ यौनिक हिंसा करना. एक अक्सर दिखने वाली परिघटना हैं। भारतीय परिप्रेक्ष में पितृसत्ता से लड़ने के लिए जाति और जेंडर दोनों के बीच के सम्बन्ध को समझना बहुत जरुरी है।
हम कह सकते हैं कि जाति पहले से कमजोर हुई है लेकिन अपने नए रूप में बरक़रार है। जन्म शिक्षा प्रेम विवाह नौकरी इस सभी क्षेत्रों में जाति कुछ हद तक टूटी भी है लेकिन नए समीकरणों के साथ मौजूद है।
सांस्कृतिक कार्यक्रम
रात्रिभोज के बाद सभी साथियों ने सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लिया प्रगतिशील गानों के साथ कार्यक्रम की शुरुआत हुई दिल्ली से रोहिणी के साथी. वंदना गुड्डी और कुसुम ने घर के अन्दर होने वाली महिला हिंसा के खिलाफ एक प्रस्तुति की इलाहबाद की युवा साथियों ने भारत में किसानों की दशा और उस पर हमारे प्रधानमंत्री के रवैयें पर एक बेहतरीन प्रस्तुति की दिल्ली से किलकारी ;एक साथी की बेटी जो कि अभी 8वीं कक्षा में पढ़ती है ने भी एक छोटी सी प्रस्तुति की जिसमें उसने बाल.यौनहिंसा के मुद्दे को उजागर किया। घर के अन्दर ही जानपहचान वालों के द्वारा यौन हिंसा कैसे होती है और कैसे उसके खिलाफ बोलना जरुरी हैं . प्रस्तुति में ये बात उभर कर आई। अंत में सभी साथियों ने पर लगा लिए हैं हमने तो पिंजरे में कौन बैठेगा गीत पर खूब नाचा।
तीसरा दिन
समकालीन भारतीय राजनैतिक हालात
इस सत्र का संचालन पदमा सिंह ;स्त्री मुक्ति संगठन और प्रदीप सिंह ;न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव ने किया। सत्र का पहला भाग पार्टिसिपेटरी था जिसमे की खेल के माध्यम से समूह बाटे गए की कौन से मुद्दे घर समाज और राजनीती का हिस्सा है। इस खेल का उद्देश्य था ये स्थापित करना की हर एक चीज़ वो चाहे हमारे रसोई से जुडी क्यूँ न हो राजनितिक है फिर हर समूह से निकले अलग.अलग मसलो पर चर्चा हुई।
चर्चा मे ये बात सामने आई की सभी सवालों की तरह ये सवाल भी जटिल है। अगर एक सवाल धर्म से जुड़ा है और दूसरा सांस्कृतिक और तीसरा आर्थिक। लेकिन अंततः सभी राजनीती से जुड़े हुए है।
इसीलिए जब NGO और नवउदारवाद के दौर मे जब ये बात जोर पकड़ रही थी की नो पॉलिटिक्स प्लीज वो Nancy Fraser के शब्दों मे नारीवादी राजनीती को नवउदारवाद के खेमे मे ही ले जायेगा। अगर स्त्री मुक्ति सभी के मुक्ति के बिना सम्भव नहीं है तो नारीवाद निश्चिन्त तौर पर राजनितिक मुद्दा है। इसी सन्दर्भ मे प्रदीप ने भारत मे ब्रिटिश पीरियड से ले कर आज तक के हिंदुस्तान की राजनीती पर बात की आज की हिन्दुस्तानी राजनीती मे बात चाहे सबका साथ और सबका विकास की की जा रही हो पर असल मे नफरत एवम विनाश ही फैलाया जा रहा है। नयी दुनिया और मानव मुक्ति का रास्ता इस नफरत फ़ैलाने वाली राजनीती से हो कर नहीं जाता। हमे short term और long term goal को ध्यान मे रखते हुए अपना काम करना होगा। जहाँ आज की राजनीती कड़ी है वहां पर लड़ सकने बात करने तक की ज़मीन को बचाए रखना महत्वपूर्ण है। इसीलिए हमे विकल्पों को बचाए रखते हुए मुक्तिगामी समाज की राजनीती करनी होगी।
1 comments:
हर साल की तरह इस साल की स्त्री मुक्ति संगठन द्वारा आयोजित कार्यशाला हम सभी साथियों के लिए बहुत सार्थक रही। इस कार्यशाला में वर्तमान समय के लगभग सभी महत्वपूर्ण मद्दों व विषयों पर चर्चा हुई। इसके अलावा सभी ने अपने अनुभव भी साझा किये और भविष्य की रणनीति बनाकर स्त्री मुक्ति की शपथ ली। सबसे मत्वपूर्ण शाम के समय आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम रहे-गीत, संगीत, नाटक,नृत्य इत्यादि।
इस पूरी रिपोर्ट के लिए साधुवाद।
फिर मिलेंगे अगली कार्यशाला में नए मुद्दों और नई उम्मीदों के साथ स्त्री मुक्ति के लिए, हक के लिये,बराबरी के लिए।
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