-अंजलि सिन्हा
यह बात तो सरकारें भी समझती हैं कि स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार लोगों की जिन्दगी के सबसे अहम सवाल हैं। इसलिए इसके आसपास चर्चा तो होनी ही है और घोषणाएं भी परंतु पूछा जा सकता है कि क्या वाकई सरकार समस्याओं को सुलझाने के लिए इरादा रखती भी है।
आम बजट में घोषित सरकार की स्वास्थ्य बीमा योजना - जिसमें 10 करोड़ परिवारों को 5 लाख राशि का स्वास्थ्य बीमा देने की घोषणा हुई है - को अब तक की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना बताया जा रहा है। नीति आयोग के उपाध्यक्ष ने इसे पासा पलटनेवाली योजना बताया तो वहीं सरकार के विभिन्न स्त्रोतों ने इस योजना के तहत स्वास्थ्य नीति में बड़े बदलाव का विवरण दिया है।
यह बात तो सरकारें भी समझती हैं कि स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार लोगों की जिन्दगी के सबसे अहम सवाल हैं। इसलिए इसके आसपास चर्चा तो होनी ही है और घोषणाएं भी परंतु पूछा जा सकता है कि क्या वाकई सरकार समस्याओं को सुलझाने के लिए इरादा रखती भी है।
जहां जगजाहिर है कि अस्पतालों की, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों जैसे आधारभूत ढांचा अपने यहां आबादी की तुलना में बहुत कम है, डाक्टर तथा अन्य सहयोगी स्टाफ की भारी कमी है वहां अस्पताल बनवाने, नए नए दूसरे एम्स जैसी अग्रणी संस्थाएं खोलने, डाक्टरी की पढ़ाई के लिए और अधिक अवसर उपलब्ध कराने की जरूरत हो, उस पर कोई चर्चा न हो, यह बेहद आश्चर्यजनक है। अगर सारा जोर इस बात पर हो कि आपको पैसा मिलेगा बीमा के द्वारा ताकि आप अपना इलाज करवा सकें, तो इसमें किसका हितसाधन होगा ? आम आदमी का या बीमा कम्पनियों का, दुकान के रूप में फैले निजी अस्पतालों का ?
शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों ही बाज़ार के तर्क से चलनेवाले मुददे नहीं है तभी उन्नत पूंजीवादी देशों में भी स्वास्थ्य सिर्फ बाज़ार के हवाले नहीं छोड़ा जाता और चिकित्सा सुविधा सभी को उपलब्ध कराने पर खयाल रहता है। उधर इस प्रष्टभूमि के बावजूद नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार तो खुले तौर पर बता रहे हैं कि सरकार को केवल बीमा प्रीमियम का बोझ उठाना है, जो कि बहुत थोड़ा होगा। भारी मात्रा में खरीद और प्रतिस्पर्धा से लाभ प्राप्त होगा। वे कहते हैं कि यह योजना निजी क्षेत्र के उपक्रमों को प्रोत्साहित करेगी और वे पुरजोर तरीके से स्वयं को तैयार करेंगी।
वैसे स्वास्थ्य के क्षेत्रा में बीमा कम्पनियों को प्रदान किए जा रहे इन विशेष अवसरों के संदर्भ में अन्य देशों के अनुभवों पर भी गौर करने की जरूरत है। मिसाल के तौर पर अमेरिका के बारे में यह विवरण छपा था कि वहां स्वास्थ्य सुविधाओं के बढ़ते खर्चें और उसके चलते अपने आप को दिवालिया घोषित करनेवाले लोगों की तादाद में आश्चर्यजनक ढंग से बढ़ोत्तरी हुई है। 1981 में घर की किसी चिकित्सकीय इमर्जंसी के चलते अपने आप को दिवालिया घोषित करनेवालों की तादाद दिवाला घोषित करनेवाले परिवारों में से महज 8 फीसदी थी तो यह आंकड़ा 2001 में ही 46 फीसदी को पार कर गया तो 2007 तक आते आते 62 फीसदी से आगे बढ़ चुका है। / टाईम्स आफ इंडिया, 8 जुलाई 2016/ और यह आंकड़े अमेरिकी डाक्टरों के एक बड़े समूह - जिसमें 2,500 से अधिक पेशेवर शामिल हैं - ‘फिजिशियन्स फॉर नेशनल हेल्थ प्रोग्राम’ के विस्त्रत अध्ययन के बाद सामने आए थे। इसलिए उन्होंने मांग की थी कि इसका एकमात्रा उपाय यही है कि अमेरिका में निजी बीमा प्रणाली को समाप्त कर उसे सरकारी खर्चे से संचालित नेशनल हेल्थ प्रोग्राम से प्रतिस्थापित किया जाए ताकि सभी अमेरिकियों के स्वास्थ्य को ‘कवर’ किया जा सके।
अपने यहां स्वास्थ्य को लेकर चिन्ता की लकीरें पहले से बनी हुई हैं क्योंकि भारत उन देशों में शुमार है जहां सरकारी बजट में स्वास्थ पर बहुत कम खर्च होता है। भारत सरकार के बजट के आंकड़ों को देखें तो वह सकल घरेलू उत्पाद का महज 1 फीसद के आसपास रहता आया है। इसके बरअक्स चीन में सकल घरेलू उत्पाद का 3 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च होता है तो अमेरिका अपनी जीडीपी/सकल घरेलू उत्पाद/ का 8.3 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च करता है, जबकि ब्रिटेन में यह आंकड़ा 9.6 फीसदी तक पहुंचता है, कनाडा में यह आंकड़ा 11.4 फीसदी है तो जर्मनी में 11.7 फीसदी और फ्रांस में 11.9 फीसदी। एक अनुमान के अनुसार भारत स्वास्थ्य पर सरकारी खर्चे के हिसाब से दुनिया के 184 देशों में 178 वें स्थान पर है। निम्न आयवाले देश -बांगलादेश, नेपाल और श्रीलंका से भी वह पीछे है। इतनाही नहीं स्वास्थ्य पर खर्च के चलते किस तरह हर साल लाखों लोग गरीबी रेखा के नीचे ढकेल दिए जाते हैं, इस पर अध्ययन हुए हैं।
संयुक्त राष्टसंघ के मुताबिक दुनिया के 1.2 अरब गरीबों की संख्या में से एक तिहाई भारत में रहते हैं। गरीब आबादी के लिए सरकारी स्वास्थ्य सुविधा ही एकमात्रा आसरा होता है, जबकि स्वास्थ्य के क्षेत्रा में निजी कम्पनियों का प्रभुत्व लगातार बढ़ रहा है। स्वास्थ्य उद्योग मे लगभग 15 फीसद के दर से हर साल बढ़ोत्तरी हो रही है। निजी अस्पतालों को सस्ते दर पर जमीने ंमुहैया करायी जा रही हैं और पैकेज के आकर्षण के कारण डाक्टर्स अपनी सेवायें वहां देने के लिए पहुंच रहे हैं। सरकार की उदासीनता तथा नौकरशाही के जंजाल से मुक्त यहां कमाने का अच्छा अवसर दिखता है। सरकार भले ही घोषणा करती रहे कि मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने के बाद युवा सरकारी अस्पतालों को अपनी सेवाएं दें, लेकिन वह बदहाल स्वास्थ्यतंत्रा को दुरूस्त करने की कोई जरूरत महसूस नहीं करती है। बिना बुनियादी ढांचागत सुविधाओं के आखिर सुधार महज घोषणाओं से कैसे हो सकता है और इसके लिए पर्याप्त धन आवंटन के बजाय कटौती की जा रही है।
ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि भारत के पास संसाधनों की कमी है, यह दरअसल राजनीतिक इच्छाशक्ति का सवाल है। अगर एक छोटासा देश क्यूबा - जो खुद उसी तरह आर्थिक संकट एवं अमेरिकी घेराबन्दी की मार झेलते हुए - हर नागरिक को स्वास्थ्य का अधिकार दिलाने में तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन के हिसाब से दुनिया के लिए नज़ीर बनने में सम्भव हो सकता है तो भारत ऐसा क्यों नहीं कर सकता !
अगर हम अमेरिकी डाक्टरों के एडवोकेसी गु्रप ‘फिजिशियन्स फार नेशनल हेल्थ प्रोग्राम’ की सिफारिश की तरफ फिर लौटें तो वह कहती हैं कि वह ‘सिंगल पेयर केयर सिस्टम’ अर्थात ‘सभी एक ही किस्म का भुगतान करेंगे’ इस आधार होनी चाहिए ताकि हर व्यक्ति द्वारा नियत राशि प्रदान करने पर उसे पूर्ण कवरेज दिया जाएगा। अगर हम ‘न्यूजक्लिक’ के प्रकाशित स्वास्थ्य कार्यकर्ता अमित सेनगुप्ता के आलेख को देखें तो वह बताता है कि दुनिया में जहां जहां एक एकीक्रत और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों की कामयाबी की चर्चा हुई है, वह सभी देश इसी माडल पर आधारित है, जहां हर व्यक्ति अपनी नियत राशि भुगतान करता है और उसी के आधार पर उसे महंगा से महंगा इलाज करवाया जाता है। (http://newsclick.in/india/ better-days-ahead-%E2%80%93- insurance-companies-and- corporate-hospitals) वह बताते हैं कि चाहे ‘क्यूबा हो या कोस्टा रिका, मलेशिया, श्रीलंका या ब्रिटेन की नेशनल हेल्थ सर्विस जहां विगत कुछ दशकों से कार्यक्षम और समतामूलक स्वास्थ्य सुविधा वितरण की प्रणाली कायम हुई हैं या हाल के दिनों में चर्चित थाइलेण्ड और ब्राजिल जैसे देश हों, वह सभी इसी पर आधारित हैं।
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