– सरला सुन्दरम्
भारतीय सभ्यता और संस्कृति की बात करने वाले कई लोग घर को ही स्त्री का कार्यक्षेत्र मानते हैं। उन्हें यह पसंद नहीं कि स्त्रियाँ पुरुषों की तरह घर से बाहर निकलकर कोई कामकाज करें। वे अपनी बात मनवाने के लिए स्त्री को ‘गृहस्वामिनी’ या ‘घर की मालकिन’ कहकर महिमामंडित करने का प्रयास करते हैं और एक सरासर ग़लत तर्क प्रस्तुत करते हैं कि स्त्रियाँ तो स्वभाव से ही घरेलू होती हैं और उन्हें घरेलू ही रहना अच्छा लगता है। ऐसे लोग उस घर को आदर्श बताते हैं, जिसमें पुरुष बाहर जाकर काम और कमाई करते हैं, जबकि स्त्रियाँ घर-गृहस्थी संभालती हैं। ज़ाहिर है, ऐसे लोगों की नज़र में पुरुषों का काम तो काम होता है, स्त्रियों का काम कोई काम नहीं होता। उन्हें पुरुष तो काम करते दिखाई देते हैं, स्त्रियाँ कोई काम करती दिखाई नहीं देतीं। इतना ही नहीं, स्त्रियाँ उन्हें पुरुषों के काम और कमाई के बल पर ‘घर की मालकिन’ बनी बैठी दिखाई देती हैं, मानो वे बिलकुल निकम्मी-निठल्ली हों और फिर भी सारी संपत्ति की स्वामिनी हों!
भारतीय सभ्यता और संस्कृति की बात करने वाले कई लोग घर को ही स्त्री का कार्यक्षेत्र मानते हैं। उन्हें यह पसंद नहीं कि स्त्रियाँ पुरुषों की तरह घर से बाहर निकलकर कोई कामकाज करें। वे अपनी बात मनवाने के लिए स्त्री को ‘गृहस्वामिनी’ या ‘घर की मालकिन’ कहकर महिमामंडित करने का प्रयास करते हैं और एक सरासर ग़लत तर्क प्रस्तुत करते हैं कि स्त्रियाँ तो स्वभाव से ही घरेलू होती हैं और उन्हें घरेलू ही रहना अच्छा लगता है। ऐसे लोग उस घर को आदर्श बताते हैं, जिसमें पुरुष बाहर जाकर काम और कमाई करते हैं, जबकि स्त्रियाँ घर-गृहस्थी संभालती हैं। ज़ाहिर है, ऐसे लोगों की नज़र में पुरुषों का काम तो काम होता है, स्त्रियों का काम कोई काम नहीं होता। उन्हें पुरुष तो काम करते दिखाई देते हैं, स्त्रियाँ कोई काम करती दिखाई नहीं देतीं। इतना ही नहीं, स्त्रियाँ उन्हें पुरुषों के काम और कमाई के बल पर ‘घर की मालकिन’ बनी बैठी दिखाई देती हैं, मानो वे बिलकुल निकम्मी-निठल्ली हों और फिर भी सारी संपत्ति की स्वामिनी हों!
लेकिन वास्तविकता इसके बिलकुल विपरीत और
बड़ी भयानक है। अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष में संयुक्त राष्ट्र ने यह सच्चाई सारी
दुनिया के सामने उजागर की थी कि दुनिया में कुल जितना काम होता है, उसका दो-तिहाई
स्त्रियाँ करती हैं, लेकिन अपने काम के बदले में उन्हें कुल आमदनी का सिर्फ दस
प्रतिशत मिलता है; और दुनिया में उत्पादन के कुल जितने साधन हैं, उनमें से महज़ एक
प्रतिशत पर ही स्त्रियों का स्वामित्व है। अर्थात् पुरुष केवल एक-तिहाई काम करते
हैं, लेकिन उन्हें कुल काम से होने वली आय का 90 प्रतिशत मिलता है और उत्पादन के
99 प्रतिशत साधनों के वे स्वामी हैं! इन आंकड़ों से पता चलता है कि स्त्रियाँ कितनी
घरेलू हैं और कैसी ‘गृहस्वामिनी’!
स्त्रियों की यह भयानक दुर्दशा किसी
प्राचीन सभ्यता की किन्हीं प्राचीन व्यवस्थाओं का अवशेष नहीं, बल्कि आधुनिक विकास
की निशानी है और इसी से उत्पन्न हुई है। ‘घरेलू स्त्री’ की अवधारणा वास्तव में
बहुत नई है और 19वीं शताब्दी से पहले कहीं नहीं पाई जाती। अतः आज की स्त्रियों की
दुर्दशा तथा उसके कारणों को समझने के लिए ‘घरेलू स्त्री’ की अवधारणा को तथा
स्त्रियों को घरेलू बनाये जाने की प्रक्रिया को समझना अत्यंत आवश्यक है।
‘हाउसवाइफ’ (घरेलू स्त्री) 19वीं
शताब्दी में तथाकथित पहली दुनिया (यानी पश्चिम के पूँजीवादी, विकसित या औद्योगीकृत
देशों) में सामने आई। वह एक लम्बी ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम थी, जिसकी तुलना
सर्वहाराकरण की प्रक्रिया से की जा सकती है। (और ये दोनों प्रक्रियाएँ परस्पर
घनिष्ठता से जुड़ी हुई भी हैं।) इस प्रक्रिया को स्त्रियों का ‘घरेलूकरण’ कहा जा
सकता है। इसका अर्थ है कि स्त्रियाँ अपनी कुछ प्राकृतिक विशेषताओं के कारण हमेशा
से घरेलू नहीं थीं और न ही वे किसी इतिहास विशेष में अपने-आप पैदा हो गई थीं।
उन्हें एक खास तरह की अर्थव्यवस्था की माँगों के मुताबिक घरेलू बनाया गया था –
चर्च के ज़रिये, क़ानून के ज़रिये और श्रमिकों को दी जाने वाली ‘फैमिली वेज’
(पारिवारिक मज़दूरी) के ज़रिये। उसके बाद ही तीसरी दुनिया के देशों में स्त्रियों के
घरेलूकरण की प्रक्रिया शुरू हुई, जो आज पूरे ज़ोर-शोर से जारी है। यह काम बड़े ही
सुनियोजित ढंग से, विकास की नीतियों के ज़रिये तथा उन नीतियों को अमल में लाने वाले
प्रशासन के ज़रिये किया जाता है। तीसरी दुनिया के देशों में यह काम पहले से कहीं
ज़्यादा जान-बूझकर किया जा रहा है।
वेरोनिका बेन्होल्ट-थॉमसन ने 1982 के
आसपास एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था ‘व्हाइ डू हाउसवाइफ कंटीन्यू टू बी
क्रिएटेड इन दि थर्ड वर्ल्ड टू?’ (तीसरी दुनिया में भी स्त्रियाँ का घरेलू बनाया
जाना क्यों जारी है?) उस लेख में ‘घरेलू स्त्री’ को परिभाषित करते हुए कहा गया था
कि ऐसी स्त्रियाँ दुनिया के सभी देशों में घर-बाहर तरह-तरह के काम करती हैं, लेकिन
उन्हें उनके द्वारा किए जाने वाले कामों से नहीं, बल्कि उन परिस्थितियों तथा
सम्बन्ध से पहचाना जाता है, जिनके अंतर्गत वे घर-बाहर के सभी काम करती हैं। उनके
द्वारा किए जाने वाले कामों का मूल्यांकन आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से करने के
बजाए इस विचारधारा के साथ किया जाता है कि स्त्रियाँ जो कुछ करती हैं, वह घरेलू
काम है और वे प्राकृतिक या स्वाभाविक रूप से इसी काम के लिए बनी हैं।
लेकिन जब हम स्त्रियों द्वारा किए जाने
वाले कामों पर नज़र डालते हैं, तो उनमें से बहुत-से काम ‘घरेलू’ नहीं होते। स्त्री
घर के अन्दर रहकर घर-गृहस्थी चलाने, पति की सेवा करने, बच्चों का पालन-पोषण करने
तथा बुजुर्गों की देखभाल करने के अलावा बाहर जाकर भी बहुत कुछ करती है। मसलन,
तीसरी दुनिया के किसी देश की स्त्री को हम पीठ पर अपने बच्चे को बाँधे हुए खेत में
काम करते हुए देख सकते हैं, तो पहली दुनिया की किसी स्त्री को अपने बच्चों को
नर्सरी स्कूल या संगीत कक्षाओं में ले जाने और वापस लाने वाले कारचालक के रूप में।
कपड़े धोना, घर की सफ़ाई करना, खाना बनाना, मीलों दूर जाकर पीने का पानी और चूल्हे
का जलावन लाना, दूध देने वाले पशुओं को खिलाने के लिए घास या चारा लाना, उनको
सानी-पानी देना, उनका गोबर-कूड़ा साफ़ करना, उपले पाथना, दूध दुहना, दूध से मक्खन और
घी बनाना, अचार-मुरब्बे-बड़ी-पापड़ बनाना, घर के पास की क्यारी में साग-भाजी या
फल-फूल उगाना और उन्हें बेचने जाना इत्यादि असंख्य काम हैं, जिन्हें काम ही नहीं
माना जाता। यहाँ तक कि जो स्त्रियाँ ‘पार्ट टाइम’ काम करने जाती हैं और कमाकर लाती
हैं, उनके इस काम को भी पुरुषों द्वारा किए जाने वाले ऐसे ही काम के समान महत्त्व
नहीं दिया जाता। बाहर उसके बदले में उन्हें बहुत कम पैसा दिया जाता है और घर में
उनके इस काम और कमाई के कारण उन्हें कोई विशेष सुविधा नहीं मिलती, बल्कि अक्सर तो
यह होता है कि वे जो कुछ कमाकर लाती हैं, घर के पुरुष उनसे छीन लेते हैं, चाहे वे
उनकी इस कमाई को जुए और शराब जैसी चीज़ों में ही क्यों न उड़ा दें!
इस प्रकार विभिन्न देशों की अपनी
विशिष्ट परिस्थितियों में विभिन्न प्रकार के काम करने वाली उन स्त्रियों को, जो
पूरे वक़्त की नौकरी नहीं, बल्कि ‘पार्ट टाइम’ नौकरी करती हैं (कई पश्चिमी देशों
में, मसलन जर्मनी में, ‘पार्ट टाइम’ नौकरी करने वाले लोगों में 99 प्रतिशत
स्त्रियाँ हैं), घरेलू स्त्रियाँ ही कहा जाता है, जिसका अर्थ होता है कि उनके
द्वारा घर से बाहर किए गए कामों का भी कोई महत्त्व नहीं है।
स्त्रियों को घर के बाहर ऐसे कुलवक्ती
काम कम ही मिलते हैं, जिनमें उन्हें पुरुषों के समान वेतन और अन्य लाभ मिलते हों।
उन्हें समान काम के लिए भी कम वेतन मिलता है, काम कभी मिलता है और कभी नहीं मिलता,
जब मिलता है, तब अक्सर ‘पार्ट टाइम’ मिलता है, जिसमें पैसा कम मिलता है और कोई सुरक्षा
या सुविधा नहीं मिलती। आजकल उत्पादन का बड़े-बड़े उद्योगों वाला तरीका बदल जाने से
बहुत-से काम ठेके पर या ‘पीस रेट’ पर कराए जाते हैं, जिन्हें स्त्रियों को अपने घर
या झोंपड़ी में बैठकर करना होता है (चाहे वे उच्च शिक्षा प्राप्त स्त्रियों द्वारा
कंप्यूटर पर किए जाने वाले काम हों या अशिक्षित स्त्रियों द्वारा कपड़े सिलने और उन
पर गोट या बटन लगाने जैसे काम हों)। इन कामों में जितना श्रम और समय लगता है, उसके
मुक़ाबले मेहनताना बहुत कम होता है। इतना ही नहीं, स्त्रियों द्वारा किए जाने वाले
इन कामों को समाज में नीची नज़र से भी देखा जाता है। इस सबका कारण यह है कि ऐसे काम
‘घरेलू स्त्री’ के काम माने जाते हैं, जो स्वयं समाज में नीची नज़र से देखी जाती
हैं। मगर आज के पूँजीवाद को अधिक शोषण से अधिक मुनाफ़ा कमाने के लिए ‘घरेलू स्त्री’
की ज़रुरत है और इसके लिए स्त्रियों को घरेलू बनाना, बनाए रखना या लगातार ‘घरेलू
स्त्रियाँ’ उत्पन्न करते रहना ज़रूरी है।
इसके पीछे जो ‘सिद्धांत’ काम करता है,
वह यह है कि स्त्री-पुरुष के आधार पर किए जाने वाले श्रम-विभाजन में स्त्री द्वारा
किए जाने वाले काम घर के अन्दर के काम हैं और पुरुष द्वारा किए जाने वाले काम घर
के बाहर के; घर के कामों का बाहर के कामों की तुलना में कोई मूल्य नहीं है, अतः
घरेलू काम करना स्त्री होने के नाते स्त्रियों का कर्तव्य है, जिसके बदले में कोई
वेतन या मज़दूरी पाना उनका अधिकार नहीं है, जबकि पुरुष बाहर के जो काम करते हैं,
वेतन या मज़दूरी या मुनाफ़े के लिए करते हैं। इतना ही नहीं, इस नितांत आधुनिक
पूँजीवादी ‘सिद्धांत’ के मुताबिक़ (जो अन्यथा हर बात में बाज़ार की, माँग और पूर्ति
की, क्रय-विक्रय की तथा लाभ-हानि की बात करता है) यह श्रम-विभाजन ‘प्राकृतिक’ और
‘शाश्वत’ है। अर्थात् स्त्रियाँ तो जन्म से ही ‘घरेलू’ होती हैं और वे हमेशा से ही
‘घरेलू काम’ मुफ़्त में करती आई हैं! लेकिन यह ‘सिद्धांत’ स्त्रियों द्वारा घर से
बाहर जाकर किए जाने वाले कामों पर भी लागू किया जाता है। वे बाहर काम करने जाती
हैं, तो उन्हें समान काम के लिए भी पुरुषों से बहुत कम वेतन दिया जाता है। इससे भी
बेहतर यह समझा जाता है कि बाहर के कामों को भी उनसे उनके घर के अन्दर ही कराया जाए।
अर्थात् बाहर के कामों को भी उनके घरेलू काम बनाकर उनका मूल्य बहुत ही कम कर दिया
जाए। ज़ाहिर है, इससे स्त्रियों का शोषण कई गुना बढ़ाकर पूँजीपति अपना मुनाफ़ा कई
गुना बढ़ा लेते हैं।
स्त्रियों के भयंकर शोषण की इस
प्रक्रिया को उचित ठहराने के लिए अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि पूँजीवाद से पहले
की व्यवस्थाओं में भी तो स्त्रियाँ घरेलू होती थीं और घरेलू काम मुफ़्त में ही करती
थीं। लेकिन यह तर्क देने वाले लोग पहले की और आज की कई परिस्थितियों को भुला देते
हैं। मसलन, पूँजीवाद से पहले की व्यवस्थाओं में काम का मूल्य रूपये-पैसे में नहीं
आँका जाता था। पूँजीवादी व्यवस्था में पुरुषों के काम का सम्बन्ध तो उसके बदले में
मिलने वाले पैसे से जुड़ गया, लेकिन स्त्रियों के काम के बदले में पैसा या तो
उन्हें मिलता ही नहीं है, या बहुत कम मिलता है। इससे स्त्रियों की वह पहले वाली
स्थिति समाप्त हो जाती है, जिसमें वे अपने बच्चों के साथ एक प्रकार का स्वायत्त
जीवन जी लेती थीं। अब उन्हें पैसे के बल पर चलने वाली उस दुनिया में जीना पड़ता है,
जिसमें पैसा पुरुषों के हाथ में होता है और स्त्रियों को अपने बच्चों के साथ उन
पुरुषों पर निर्भर रहना पड़ता है, जो पैसा कमाकर लाते हैं। इससे परिवार में
सहकारिता और उससे जुड़ी जनतांत्रिकता समाप्त हो जाती है और एक प्रकार की
श्रेणीबद्धता आ जाती है, जिसमें पैसा कमाने वाले का स्थान ऊँचा और उस पर निर्भर
रहने वालों का स्थान नीचा हो जाता है, भले ही उससे उम्र में बड़े भाई-बहन या
माता-पिता ही क्यों न हों। कमाऊ पति की तुलना में ‘घरेलू स्त्री’ का स्थान तो
हमेशा नीचा रहता ही है।
यह सही है कि ‘घरेलू स्त्रियाँ’ पहले
भी होती थीं, लेकिन उनकी स्थिति आज की तुलना में बहुत भिन्न होती थी। पहले ‘घर’ उत्पादन,
उपभोग तथा पुनरुत्पादन की एक इकाई होता था, जिसमें स्त्रियों और पुरुषों के काम अलग-अलग
होते हुए भी एक-दूसरे से ऊँचे-नीचे नहीं, बल्कि समान रूप से आवश्यक तथा मूल्यवान
होते थे। उदहारण के लिए, एक किसान परिवार में पुरुष खेत में काम करते थे, तो
स्त्रियाँ घर-गृहस्थी संभालती थीं और एक के बिना दूसरे का काम नहीं चलता था। अतः
स्त्री-पुरुष आपस में सहयोग करते थे और ‘घर’ के लिए दोनों समान रूप से
महत्त्वपूर्ण होते थे। इतना ही नहीं, पुरुष का काम भी उतना ही ‘घरेलू काम’ होता
था, जितना स्त्री का। उस व्यवस्था में जिस तरह निजी और सार्वजनिक जीवन का भेद नहीं
था, उसी तरह घरेलू और बाहरी काम में यह भेद नहीं था कि घरेलू काम का कोई मूल्य
नहीं या बहुत कम मूल्य है और बाहर का काम मूल्यवान या अधिक मूल्यवान है।
अतः आज की ‘घरेलू स्त्री’ की व्याख्या
स्त्री-पुरुष के प्राकृतिक अंतर और उस पर आधारित श्रम-विभाजन के आधार पर नहीं की
जा सकती। आज का श्रम-विभाजन घर या बाहर किए जाने वाले कार्यों के आधार पर नहीं,
बल्कि इस आधार पर किया जाता है कि कौन-सा काम करने से पैसा मिलता है और कौन-सा काम
करने से पैसा नहीं मिलता; अथवा किस काम से पैसा ज्यादा मिलता है और किस काम से
पैसा कम मिलता है। चूँकि आज की दुनिया में प्रतिष्ठा का सम्बन्ध पैसे से जुड़ गया
है, इसलिए जिसकी पहुँच पैसे तक जितनी कम होती है, उसकी प्रतिष्ठा भी उतनी ही कम
होती है। इस वास्तविकता को सभी जानते हैं, फिर भी इस पर पर्दा डालने के प्रयास किए
जाते हैं। जब ‘पहली दुनिया’ में घरेलू काम की बात होती है, तो कहा जाता है कि
पूँजीवाद से पहले की व्यवस्थाओं में भी घरेलू काम होते थे और जब तीसरी दुनिया में
घरेलू काम की बात होती है, तो कहा जाता है कि घरेलू स्त्रियाँ तो पहली दुनिया में
भी होती हैं! असल बात यह है कि स्त्री-पुरुष के प्राकृतिक अंतर पर आधारित
श्रम-विभाजन आज के पूँजीवाद के लिए ज़रूरी है और उसके विचारधारात्मक रूपों में
स्त्री-पुरुष की बराबरी के बारे में चाहे कुछ भी कहा जाए, उनकी असमानता को न सिर्फ
बनाए रखना, बल्कि बढ़ाते जाना भी इस व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अनिवार्य है।
इससे कथनी और करनी का जो भेद पैदा होता है, उससे उघड़ने वाले सच को ढँकने के लिए आज
की पूँजीवादी व्यवस्था में इतिहास, परंपरा, सभ्यता, संस्कृति, धर्म, दर्शन,
साहित्य, विज्ञान, मीडिया, शिक्षा प्रणाली आदि सभी चीज़ों के ज़रिये मिथ्या प्रचार
किया जाता है।
‘घरेलू स्त्री’ पहले विकसित पूँजीवादी
देशों में बनी, फिर विकासशील पूँजीवादी देशों में बनाई गई और आज भी सारी दुनिया
में बनाई जा रही है। इसका सम्बन्ध ‘घरेलू काम’ से नहीं, बल्कि उसके बदले में पैसा
न मिलना या कम मिलने के कारण उसका मूल्य कम आँके जाने से है। ‘घरेलू काम’ का मूल्य
कम आँका जाता है, तो ‘घरेलू स्त्री’ की सामाजिक प्रतिष्ठा भी घटती है औए उसे नीची
नज़र से देखा जाने लगता है। यहाँ तक कि स्त्री को ‘घाटे का सौदा’ भी समझा जाता है।
भारत में पिछले कुछ दशकों में स्त्रियों की संख्या में पुरुषों के मुक़ाबले जो कमी
आई है, उसका कारण यही है कि स्त्रियों को या तो भ्रूण रूप में ही मार डाला जाता
है, या उनके जन्म के बाद उपेक्षा, कुपोषण, शोषण, दमन, उत्पीड़न, से अथवा सीधे हत्या
करके उन्हें समाप्त कर दिया जाता है। चीन जैसे देश में भी, जहाँ क्राँति के बाद एक
नया समाज बन गया माना जाता था, जब से वहाँ के लोगों पर ‘एक बच्चे वाले परिवार’ का
क़ानून थोपा गया है, लड़की पैदा करने वाली स्त्रियों से नफ़रत करना, यहाँ तक कि उनकी
हत्या कर देना भी एक आम बात हो गई है। जर्मनी में ‘जर्मन सोसायटी फॉर टेक्नीकल
कोऑपरेशन’ नामक पुरुषवादी संगठन ने इस ‘समस्या’ के समाधान के लिए एक ऐसी गोली ईजाद
करने का सुझाव दिया है, जिसे खाकर गर्भवती स्त्रियाँ लड़की को पैदा होने से रोक
सकें।
कुछ पश्चिमी देशों में स्त्री-शिशुओं
की हत्या को उचित ठहराने के लिए ऐसे शोधकार्य किए जा रहे हैं, जो बताते हैं कि अनेक
एथनिक समूहों में यह प्रथा रही है, अतः इसे आज के पूँजीवाद की विशेषता नहीं माना
जाना चाहिए। लेकिन ऐसे प्रयासों का औचित्य क्या है? प्रश्न यह नहीं है कि पहले के
समाजों में क्या होता रहा है या दूसरे देशों के समाजों मे क्या हो रहा है, प्रश्न
तो यह है कि पूँजीवाद यदि एक सभ्य और जनतांत्रिक व्यवस्था है, तो उसमें ऐसा क्यों
होता है?
1988 में मारिया मीस, वेरोनिका
बेन्होल्ट-थॉमसन और क्लॉडिया फॉन वेर्लहॉफ द्वारा लिखित एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी
‘वीमेन : दि लास्ट कॉलोनी’। उसमें बताया गया था कि ‘स्त्री का सवाल’ दरअसल
‘उपनिवेश के सवाल’ से जुड़ा हुआ है और ये दोनों सवाल आज की भूमंडलीकृत पूँजीवादी
तथा पितृसत्तावादी व्यवस्था से जुड़े हुए हैं। ‘स्त्री’ और ‘उपनिवेश’ दोनों में
समानता यह है कि दोनों को ‘प्रकृति’ से जोड़ा गया और ‘स्वभावतः पिछड़ा हुआ’ माना गया।
यह विचार कि पुरुषों के मुक़ाबले स्त्रियाँ ‘प्रकृति’ के अधिक निकट होती है,
पूँजीवाद के उदय से पहले कहीं नहीं पाया जाता और इसका सबसे अधिक प्रचार 19वीं तथा
20वीं शताब्दी में हुआ। इस विचार को हज़ारों साल पुरानी सभ्यता और संस्कृति से
जोड़ना और एक प्राचीन तथा वरेण्य आदर्श के रूप में प्रस्तुत करते हुए स्त्रियों को
स्वभावतः घरेलू सिद्ध करना या घर को ही उनका स्वाभाविक कार्यक्षेत्र बताना किसी
स्वतंत्र सोच और वैज्ञानिक समझ का परिचायक नहीं, बल्कि एक गुलाम सोच और बहुत ही
पिछड़ी हुई तथा बर्बर मानसिकता का प्रमाण है।
मारिया मीस ने भारतीय ‘घरेलू
स्त्रियों’ का अध्ययन करके एक पुस्तक लिखी है ‘इंडियन हाउसवाइव्स प्रोड्यूस फॉर दि
वर्ल्ड मार्किट : दि लेसमकेर्स ऑफ़ नरसापुर’। यह पुस्तक 1982 में प्रकाशित हुई थी,
जब भूमंडलीकरण का आज जैसा ज़ोर और शोर नहीं था। लेकिन मारिया मीस ने आंध्र प्रदेश
के पश्चिमी गोदावरी जिले में ‘लेस’ बनाने का काम करने वाली ‘घरेलू स्त्रियों’ का
अध्ययन करके बताया है कि ऐसी घरेलू स्त्रियाँ आज के वैश्विक पूँजीवाद के लिए कितनी
ज़रूरी हैं! ये अनपढ़ देहाती स्त्रियाँ अपने घरों में ही ‘पीस रेट’ पर बहुत ही कम
पैसों में उस ‘लेस’ को बनाने का काम करती हैं, जो पश्चिमी बाज़ारों में ख़ूब ऊँचे
दामों में बिकता है।
ऊपर से देखने में ‘विश्व बाज़ार’ और
‘घरेलू स्त्री’ अंतर्विरोधी चीज़ें मालूम होती हैं। लेकिन वास्तव में ऐसी घरेलू
स्त्रियाँ विश्व बाज़ार के लिए ज़रूरी हैं, क्योंकि वे जो काम करती हैं (जिसमें
मिलने वाली मज़दूरी के मुकाबले बहुत ही ज्यादा श्रम और समय लगता है), उसमें लगने
वाला श्रम और समय यदि बाज़ार भाव से खरीदा जाए, तो बहुत महँगा पड़े। मसलन, ‘लेस’
बनाने का कारख़ाना लगाकर तथा उसमें काम करने वालों को विधिवत् नौकरी पर रखकर
उत्पादन कराया जाए, तो ‘लेस’ का उत्पादन करने वाले पूँजीपतियों का मुनाफ़ा और उनके
लिए काम करने वाले व्यापारियों तथा ठेकेदारों का कमीशन बहुत ही कम हो जाए। इसलिए
वे अपना उत्पादन ‘घरेलू स्त्रियों’ से उनके घरों में ही कराते हैं और इसके लिए
बाक़ायदा स्त्रियों का ‘घरेलूकरण’ करते हैं।
साभार - ‘कथन’
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