-रूपाली सिन्हा
संभव प्रकाशन से सन 2016 में प्रकाशित डायरीनुमा किताब "रोज़ वाली स्त्री" भारतीय मध्यवर्ग की औरत के जीवन का लेखा-जोखा, मूल्यांकन-विश्लेषण पेश करती है। दूसरे शब्दों में कहें तो वर्ग,जाति,संप्रदाय,समुदाय से परे यह हर उस औरत की डायरी है जो पितृसत्ता के जुए के तले दबी हुई है। लेखिका सपना चमड़िया ने बहुत ही बारीकी से पितृसत्ता के इन बारीक धागों को पकड़ा है जो अक्सर परिवार और रिश्तों के महिमामंडन की चकाचौंध में दिखाई नहीं देते। डायरी की औरतें हमारे-आपके आसपास की हैं जिनसे हम रोज़ रूबरू होते हैं। बकौल लेखिका,"डायरी के ये पात्र ज़िन्दगी से उठाये गए हैं,न तो एक भी पात्र झूठा है न ही कोई घटना।" इस दृष्टि कह सकते हैं कि यह डायरी लेखिका की "आँखिन देखी" प्रस्तुति है। ये सारी औरतें घुट रही हैं, मुक्ति के लिए छटपटा रही हैं, सवाल खड़े कर रही हैं,जीवन को निरख रही हैं,समझ रही हैं.......खुद लेखिका के शब्दों में "समाज की स्त्रियों की ऐसे किस्सों से बनी हुई यह डायरी है जिसमे हर स्त्री अपनी पहचान कर लेती है। वह खुद को वहां उपस्थित महसूस करती है। वह उसपर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए राहत की लम्बी साँस लेती है। उसे एक ताज़ी हवा का एहसास होता है। मज़े की बात,उस स्त्री को उन्हें भी सुंनना अच्छा लगता है जोकि उसके मन की गहराई के उस कोने तक नहीं पहुँच पाते हैं,खुद उसके साथ घर में दिन-रात रहते हुए,कहते-पीते,सोते हुए। " डायरी की इन औरतों के भीतर कुछ कसमसा रहा है,कुछ टूट रहा है,कुछ जुड़ रहा है, कुछ पनप रहा है। यहाँ अपनी ज़मीन अपना आसमान तलाशने की शुरुआत हो चुकी है। मशहूर शायर मजाज़ के शब्दों में कहें तो :
कुछ नहीं तो कम से कम ख्वाब-ए- सहर देखा तो है
जिस तरफ देखा न था अब उस तरफ देखा तो है