- अंजलि सिन्हा
उत्तर भारत में कोचिंग हब बने
राजस्थान का कोटा शहर पिछले दिनों कुछ अलग कारणों से सूर्खियों में रहा। अक्तूबर
माह में वहां अंजलि आनंद/निवासी मुरादाबाद/, हर्षदीप कौर/निवासी कोटा/, ताराचंद /निवासी पाली/सिद्धार्थ
चौधरी /निवासी बिहार/, विकास
मीणा/निवासी राजस्थान/ और अमितेश साहू /निवासी छत्तीसगढ/ की अस्वाभाविक मौत हुई।
अगर रहस्यमयी परिस्थितियों में हुई अमितेश की मौत को अलग भी कर लें तो भी यह देख
सकते हैं कि चाहे मेडिकल या इंजिनीयरिंग की परीक्षा के लिए कोचिंग हासिल कर रहेे
पांच बच्चों ने अत्यधिक दबाव एवं तनाव के कारण आत्महत्या कर ली।
हालांकि उसी वक्त़ यह बात भी
कही गयी थी कि उससे ऐसे संस्थानों के अपने गतिविज्ञान पर कोई फरक नहीं पड़ेगा और न
ही अपनी सारी अपेक्षाएं एवं अरमान अपनी सन्तानों पर लादने की माता पिताओं की
प्रव्रत्ति पर पुनर्विचार हो सकेगा, जिसके चलते आज की तारीख में
कोटा उत्तर भारत के लाखों छात्रों के लिए कोचिंग की मक्का के तौर पर विकसित हुआ
है।
एक अख़बारी लेख में ठीक ही
जिक्र था कि आज की तारीख में कोटा कोचिंेग का सुपरमार्केट हो गया है, जिसका सिक्का मार्केट में काफी
चल रहा है। पिछले जे ई ई के परीक्षा परिणाम में टॉप रैंक में 100 में 30 कोटा के इन कोचिंग से ही निकले
हैं यानि यहां के कोचिंग सेन्टरों ने अपने लिए बाज़ार में अच्छी जगह बना ली है। एक
स्थूल अनुमान के हिसाब से लगभग दो हजार करोड़ का सालाना टर्नओवर कोचिंग के इस
मार्केट में है। कोचिंग सेन्टरों द्वारा सालाना 130 करोड रूपया टैक्स के तौर पर
दिया जाता है। कभी बंसल क्लासेज के नाम से आई आई टी की केाचिंग यहां शुरू हुई थी
और देखते ही देखते यहां आई आई टी, एनआईटी में प्रवेश के लिए कोचिंग संस्थानों का जाल बढ़ता गया
है, देश के
तमाम नामी गिरामी संस्थानों से लेकर छोटे मोटे 120 इन्स्टिटयूट यहां चल रहे हैं, जो प्रवेश परीक्षा का प्रशिक्षण
दे रहे हैैंं। आज की तारीख में यहां लगभग डेढ लाख छात्रा इन संस्थानों से कोचिंग
ले रहे हैं। और इस ‘कामयाबी’ का स्याह पक्ष यह है कि देश भर
में कोचिंग के लिए बढ़ती इस शहर की शोहरत के साथ यहां कोचिंग के लिए पहुंच रहे छात्रों
द्वारा आत्महत्या की अधिक ख़बरें आने लगी हैं।
छोटे बड़े सभी शहरों में तथा
कस्बों तक में शिक्षा की ऐसी दुकानें खुली हैं जो ‘जीनियस के निर्माण का दावा करती
हैं’ और ‘बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए
उन्हें डाक्टरी या इंजिनीयर की पढाई में एडमिशन की गारंटी देती हैं।
ऐसे लोग जो कोचिंग के व्यवसाय
में किसी न किसी स्तर पर संलग्न हैं, उनके लिए ऐसी आत्महत्याओं का
बेहद सरलीक्रत विश्लेषण मौजूद है। वह बताते हैं कि अब जब 10-15,000
सीटों के
लिए कई कई लाख छात्रा बैठ रहे हैं, और एक एक सीट के लिए तगड़ी
प्रतियोगिता है, उसमें
बच्चों का तनावग्रस्त होना स्वाभाविक है। प्रेशर और टेन्शन तो लेना ही पड़ेगा तभी
कामयाबी मिलेगी ।
अपने एक आलेख ‘मेकिंग आफ ए टेªजेडी’ (रविन्दर कौर, इण्डियन एक्सप्रेस, 14 अक्तूबर 2011) में छात्रों की बढ़ती आत्महत्या
की प्रवृत्ति की विवेचना करते हुए समाजशास्त्राी लेखिका ने इसी बात को उजागर किया
था कि भारतीय परिवारों में मां बाप की इच्छाएं किस हद तक आज भी बच्चों के जीवन को
संचालित करती हैं , इसे
जानना हो तो उन बच्चों से ही बात की जा सकती है। आई आई टी के छात्रों के साथ उनका
अनुभव यही बताता है कि जब विद्यार्थियों से पूछा जाता है कि उनकी सर्वोच्च ख्वाहिश
क्या है, अधिकतर
यही कहते मिलते हैं कि ‘‘अपने
माता पिता के अरमानों को पूरा करना।’’ ‘ न वे विश्व का सबसे बेहतर
इंजिनीयर, डॉक्टर
या डिजाइनर बनना चाहते हैं या समूची दुनिया घुमना चाहते हैं या स्कूल टीचर, कलाकार या समाजसेवी बनना चाहते
हैं, मगर
अधिकतर यही चाहते हैं कि वह अधिकाधिक पैसा कमाएं और अपने परिवारों को पड़ोसियों की
तुलना में जन्नत दिला दें।’
वैसे युवावस्था में आत्महत्या
का अनुपात महज कोटा में ही अधिक नहीं है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के आंकड़ों पर आधारित
एक आलेख जो प्रतिष्ठित ‘लान्सेट’ मेडिकल जर्नल में प्रकाशित हुआ
था, उसके
निष्कर्ष को देखें तो पता चलता है कि युवा भारतीयों में आत्महत्या - मृत्यु का
दूसरा सबसे आम कारण देखा गया है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत के सम्पन्न राज्यों के
शिक्षित युवा इतनी बड़ी तादाद में मृत्यु को गले लगा रहे हैं, जो दुनिया में सबसे अधिक है। और
यह पहला अवसर नहीं है जबकि हम इस कड़वी हक़ीकत से रूबरू हो रहे हैं।
अभी सात साल पहले एक रिपोर्ट
में (www.sift.com 2008.05.02)
बताया
गया था कि स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक उसके पहले के तीन सालों में 16,000 स्कूली एवं कालेज छात्रों ने
आत्महत्या की। वर्ष 2006 में 5,857 ; वर्ष 2005 में 5,138 तो वर्ष 2004 में 5,610 छात्रों ने आत्महत्या की। उस वक्त स्वास्थ्य मंत्राी ने आश्वस्त
किया था कि हम स्थिति की गम्भीरता से वाकीफ हैं और राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य
कार्यक्रम की नयी रूपरेखा तैयार कर रहे हैं।
समाज में प्रगति की दिशा की जब
बात करेंगे तो जो चुने गए उनसे अधिक महत्वपूर्ण विचारणीय पहलू होगा इतने युवाओं की
आत्महत्या। दूसरा महत्वपूर्ण मसला इन छात्रों की गुणवत्ता का है। ये रटन्त विद्या
से या इम्तिहान की तकनीक जान कर अंक जरूर हासिल कर लेते हैं, लेकिन ज्ञान के समुद्र में गोते
लगाना न तो सीखे होते हैं न हीं इन्हें आनंद आता है।
1 comments:
achha lekh.
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