- रूपाली सिन्हा
शादियों का मौसम एक
बार फिर से शबाब पर है। एक ज़माना था जब प्रेमविवाह "घटना" होती थी। इसके घटने
पर बड़े-बड़े नाटक-तमाशे होते थे। प्रेम-विवाह बदनामी का अच्छा-खासा सबब हुआ करता था। ऐसा करने वाले युवाओं को या तो घर-परिवार से बहिष्कृत होना पड़ता था या
बड़ी लानत-मलामत, मान-मनुहार के
बाद उनकी "घर-वापसी" हो जाती थी। कभी-कभी तो
माँ-बाप अपनी नाक बचाने के लिए यह कहकर पर्दा डालते थे कि "अरे यह लव मैरेज
थोड़ी है, वो तो हमने शादी पक्की कर दी थी,उसके बाद से दोनों मिलने-जुलने लगे थे।" धीरे-धीरे इस नाटक-तमाशे का
पटाक्षेप हो जाता था। समय के साथ इस स्थिति में परिवर्तन आया। ऐसे बागी
युवाओं की संख्या बढ़ने लगी और प्रेम-विवाह को सामाजिक स्वीकृति मिल गयी। ऐसे
बागियों ने समाज में मनचाहा जीवन साथी चुनने के लिए अपना स्पेस बनाया। लेकिन ऐसा
लगता है कि नई सदी में समय का चक्र पीछे घूम गया है। आज की युवा पीढ़ी जीवन साथी चुनने के मामले में उसी सामंती परंपरा को ढोती नज़र आ रही है जहाँ बच्चों की शादी माँ-बाप की
ज़िम्मेदारी होती थी। हालाँकि यह भी सच है कि समाज
के एक हिस्से में आज भी प्रेमीयुगल स्वेच्छा से किये गए
इस चुनाव के लिए फांसी पर भी लटका दिए जाते हैं ,कबीलाई समाज
के अवशेष यहाँ अपने बर्बर रूप में दिखाई देते हैं। लेकिन मैं जिस वर्ग की बात कर
रही हूँ वे मध्य/उच्च मध्य वर्ग के वे युवा हैं जिनके ऊपर समाज,परिवार या समुदाय का कोई बंधन नहीं है। तो आखिर इस नयी परिघटना की
क्या वजह हो सकती है? क्या आज के युवा अधिक आज्ञाकारी हो गए
है? या उनमे जीवन साथी चुनने का विवेक नहीं रहा? यहाँ भी उत्तर आधुनिक बयार बहने लगी है या कोई अन्य कारण हैं?